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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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अन्नेन गात्रं नयनेन वक्र नयेन राज्यं लवणेन भोज्यम् । धर्मण होनं बत जीवितव्यं न राजते चन्द्रमसा निशीथम् ।। १६ सस्येन देश: पयसाऽब्जखण्ड: शौर्येण शस्त्री विटपीफलेन । धर्मेण शोभामुपयाति मर्यो मदेन दन्ती तुरगो जवेन ॥ १७ मानुष्यमासाद्य सुकृच्छलभ्यं नयो विशुद्धिविदधाति धर्मम् । अनन्यलभ्यं स सुवर्णराशि दारिद्रयवग्धो विजहाति लब्ध्वा ॥ १८ अनादरं यो वितनोति धर्मे कल्याणमालाफलकल्पवृक्षे । चिन्तामणि हस्तगतं दुरापं मन्ये स मुग्धस्तृणवज्जहाति ।। १९ दुःखानि सर्वाणि निहन्तुकामनिष्पीडितमाणिगणानि धर्मः। उपासनीयो विधिना विधिहरग्निहिमानीव दुरुत्तराणि ॥ २० सस्यानि बीजं ससिलानि मेघं घृतानि दुग्धं कुसुमानि वृक्षम् । काङ्क्षत्यहान्येष विना दिनेशं धर्म विना काङ्क्षति यः सुखानि ।। २१ आयान्ति लक्ष्म्यः स्वयमेव रुच्यं धर्म दधानं पुरुषं पवित्राः । प्रसूनगन्धस्थगिताखिलाशं सरोजिनीखण्डमिवालिमालाः ।। २२ निषेवते यो विषयं विहीनं धर्म निराकृत्य सुखामिलाषी।
पीयूषमत्यस्य स कालकूटं सुदुर्जरं खादति जीवितार्थो ॥२३ धर्मकी सिद्धि भी कदापि नहीं हो सकती है ।।१५।। जैसे अन्नसे हीन शरीर, नयनसेहीन मुख, नीतिसे हीन राज्य, नमकसे हीन भोजन, और चन्द्रमासे हीन रात्रि नहीं सोहैं, वैसे ही धर्मसे हीन जीवन भी नहीं सोहता हैं ।।१६।। जैसे धान्यसे देश, जलसे कमल-वन, शौर्यसे शस्त्रधारी, फलसे वृक्ष, मदसे गज और वेगवान् गतिसे अश्व शोभाको प्राप्त होता है, वैसे ही धर्मसे मनुष्य शोभाको प्राप्त होता है ॥१७॥ जो बुद्धि-विहीन मनुष्य ऐसे अतिकष्टसे प्राप्त हुए मनुष्यभवको पाकरके भी धर्मको धारण नहीं करता हैं, वह उस दारिद्रयपीडित पुरुषके समान मूर्ख हैं, जो अन्यको नहीं प्राप्त होनेवाली सुवर्णराशिको पाकरके भी उसे छोड देता हैं ॥ ५८।। जो पुरुष कल्याणोंकी परम्परारूप फलोंको देनेनाले कल्पवृक्षके समान धर्म में अनादर करता हैं, वह मूढ अति दुर्लक्ष हस्तगत चिन्तामणिको तण के समान छोडता है, ऐसा मैं मानता हूँ ।।१९।। जिन्होंने सर्व प्राणियोंको पीडित कर रक्खा है, ऐसे समस्त दुःखोंको नष्ट करनेकी इच्छावाले विधि-ज्ञाता पुरुषोंको चाहिए कि वे विधि पूर्वक धर्मको उसी प्रकारसे उपासना करे, जिस प्रकारसे कि अति भयंकर हिमपातसे पीडित पुरुष अग्निकी उपासना करते हैं ।२०।। जो पुरुष धर्म-सेवनके विना सुखोंको चाहता हैं, वह उस पुरुष के समान मूर्ख हैं, जो कि बीजके बिना धान्यको चाहे, मेघके बिना जलको चाहे, दुग्धके बिना घृतके चाहे, वृक्षके बिना पुष्पको चाहे और सूर्यके बिना दिनको चाहता है ।।२१।
धर्मको धारण करनेवाले भव्य पुरुषके समीप पवित्र लक्ष्मियाँ स्वयं ही आती है, जिस प्रकार कि कुसुमोंकी सुगन्धिसे सर्व दिशाओंकों व्याप्त करनेवाले कमलिनी-वनके समीप भौंरोंकी पंक्ति स्वयमेव आती हैं ।।२२।। जो हीन पुरुष धर्मका निराकरण कर और सुखाभिलाषी होकर
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