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श्रावकाचार-संग्रह
उपासकाचारसारं सङ्क्षेपतः शास्त्रमहं करिष्ये ।
शक्नोति कर्तुं श्रुतकेवलिभ्यो न व्यासतोऽन्यो हि कदाचनापि ।। ९ कुदुष्टभावाः कृतिमस्तदोषां निसर्गतो यद्यपि दूषयन्ते । तथापि कुर्वन्ति महानुभावास्त्याज्या न यूकाभयतो हि शादी ॥ १० संसारकान्तारमपास्तपारं बम्भ्रम्यमाणो लभते शरीरी । कृच्छ्रेण नृत्वं सुखसस्यबीजं प्ररूढदुष्कर्मशमेन नूनम् ॥ ११ नरेषु चक्री त्रिदशेषु वज्त्री मृगेषु सिंहः प्रशमो व्रतेषु । मतो महीभृत्सु सुवर्णशैलो भवेंषु मानुष्यभवः प्रधानम् ।। १२ त्रिवर्गसारः सुखरत्नखानिर्धर्मप्रधानं भवतीह येन । सम्यक्त्वशुद्धाविह मुक्तिलाभः प्रधानता तेन मताऽस्य सद्भिः ।। १३ यथा मणिग्रविगणेष्वनर्घो तथा कृतज्ञो गुणवत्सु लभ्यः ।
न सारवत्वं न तथाङ्गिवर्गः सुखेन मानुष्यभवो भवेषु ॥ १४
शमेन नीतिविनयेन विद्या शौचेन कीर्तिस्तपसा सपर्या । बिना नरत्वेन न धर्मसिद्धिः प्रजायते जातु जनस्य पथ्या ।। १५
युगलकी सेवा करनेवाला मनुष्य शास्त्रसमुद्रके पारको प्राप्त होता है और जो पवित्र गुणोंसे गरिष्ठ है, ऐसे श्रेष्ठ गुरुजन मेरी धर्म-निष्ठाको सुदृढ करें ||८|| मैं अमितगति उपासकों के आचारविचार करनेवाले इस साररूप श्रावकाचार - शास्त्रको संक्षेपसे निरूपण करूँगा, क्योंकि विस्तारसे तो निरूपण करनेके लिए श्रुतकेवलियोंसे भिन्न अन्य कोई भी मनुष्य कदाचित् भी समर्थ नहीं है || ९ || यद्यपि क्षुद्र स्वभाववाले मनुष्य निर्दोष कृतिको स्वभावसे ही दोष लगाते हैं, तथापि महान् पुरुष अपने कार्यको करते ही हैं, क्योंकि यूका (जूं) के भयसे साडी त्यागने योग्य नहीं होती है ॥ १० ॥
सारसे रहित इस असार संसार- कान्तारमें परिभ्रमण करता हुआ यह प्राणी अति उग्र दुष्कर्मो के शमनसे प्रादुर्भूत सुखरूप शालिधान्यके बीज समान इस मनुष्यपनाको महान् कष्ट पाता है || ११|| जिस प्रकार मनुष्योंमं चक्रधारी चक्रवर्ती, देवोंमें वज्रधारी इन्द्र, मृगों में सिंह, व्रतों में प्रशमभाव और पर्वतों में सुवर्णशैल सुमेरु प्रधान माना जाता है, उसी प्रकार देव-नारकादिके सभी भवों में मनुष्य-भव प्रधान माना गया है || १२ || जैसे सम्यक्त्वकी शुद्धि होने पर धर्मका लाभ होता हैं, उसी प्रकार धर्म-अर्थ- कामरूप त्रिवर्गका सार और सुखरूप रत्नकी खानिवाला यह सर्व पुरुपार्थो में प्रधान धर्म पुरुषार्थ इस मनुष्य भवमें ही संभव है, अतएव सन्त जनोंके द्वारा इस नर भवकी प्रधानता मानी गई है || १३|| जैसे पाषाणके समूहमें अनमोल मणि पाना सुलभ नहीं और जैसे गुणवन्तों में कृतज्ञ मनुष्य मिलना सुलभ नहीं हैं, उसी प्रकार सभी भवोंमें सारवान् सुखकां अपेक्षा मनुष्य भवका पाना प्राणियोंको सुलभ नहीं हैं || १४ || जैसे शमभाव के बिना नीति नहीं रह सकती, विनयके बिना विद्या प्राप्त नहीं हो सकती, निर्लोभपना के बिना कीत्ति नहीं हो सकती और तपके बिना पूजा प्राप्त नहीं हो सकती है, उसी प्रकार मनुष्यपनाके बिना जीवके हितरूप
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