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शीलसप्तकवर्णनम् ''संजम-विरईणं को भेदो? सममिदिमहत्वयाणुव्वयाई संजमी । समिदोहिं विणा महन्व. याणुव्वयाई विरदी” इति ।
आद्यास्तु षट्जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनु त्रयः ।
शेषो द्वावृत्तमावक्ती जैनेष जिनशासने ।।२० । असिमषिकृषिवाणिज्यादिभिर्गृहस्थानां हिंसासंभवेऽपि पक्षचर्यासाधकत्वैहिसाऽभावः क्रियते। तत्राहिंसापरिणामत्वं पक्षः । धर्मार्थ देवतार्थ मन्त्रसिद्धयर्थमौषधार्थमाहारार्थ स्वभोगार्थ च गृहमे धनो हिसां न कुर्वन्ति । हिंसासंभवे प्रायश्चित्तविधिना विशुद्धः सन परिग्रहपरित्यागकरणे सत स्वगहं धर्म च वंश्याय समर्प्य यावद् गृहं परित्यजति तावदस्य चर्या भवति । सकलगुणसम्पूर्णस्य शरीरकम्पनोच्छ्वासनोन्मीलनविधि परिहरमाणस्य लोकाप्रमनसः शरीरपरित्यागः साधकत्वम् । एवं पक्षादिभिस्त्रिभिहिंसाधुपचितं पापमपगतं भवति । जैनागमे चत्वार आश्रमाः । उक्तं चोंगसकाध्ययने
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः । .
इत्याश्रमास्तु जैनानां सप्तमाङ्गाद् विनि:सृताः ॥२१॥ तत्र ब्रह्मचारिणः पञ्चविधा: उपनयावलम्बादीक्षागूढनैष्ठिकभेदेन । तत्रोपनयब्रह्मचारिणो गणधरसूत्रधारिणः समभ्यस्तागमा: गृहधर्मानुष्ठायिनो भवन्ति । अवलम्बब्रह्मचारिणः क्षुल्लक
"शंका-संयम और विरत में क्या भेद हैं? समाधान-समिति-सहित महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं और समितियोंके विना वे महाव्रत और अणुव्रत विरति या व्रत कहे जाते है।"
ऊपर कही गई ग्यारह प्रतिमाओंसे जैनियोंमें आदिके छह प्रतिमाधारी जघन्य श्रावक, उसके पश्चात् तीन प्रतिमाधारी मध्यम श्रावक और अन्तिम शेष दोनों प्रतिमाधारी उत्तम श्रावक जिनशासनमें कहे गये है ।।२०।
असि मषि कृषि वाणिज्य आदिके द्वारा गृहस्थोंके हिंसा संभव होनेपर भी पक्ष चर्या और साधकपने के द्वारा हिंसाका अभाव कर दिया जाता हैं । सदा अहिंसारूप परिणाम रखनेको पक्ष कहते हैं । गृहस्थ श्रावक धर्मके लिए, देवता के लिए मंत्र-सिद्धि के लिए, औषधिके लिए, आहारके लिए और अपने भोगके लिए हिंसा नहीं करते हैं । कदाचित् हिंसा संभव होनेपर प्रायश्चित्त वधिसे विशुद्ध होता हुआ परिग्रहका परित्याग करने के समय अपने घरको और धर्मको अपने वंशमें उत्पन्न हुए पुत्र आदिको समर्पण कर जब तक घरका परित्याग करता हैं, तब तक उसके व्रतोंका परिपालन करना चर्या कही जाती है। इस प्रकार जीवनपर्यन्त व्रत पालन कर,अन्त समयमें सकल गणोंसे परिपूर्ण होकर, वह जब शरीर-कम्पन, ऊर्वश्वास संचलन और नेत्रोन्मीलन विधि. का परिहार कर लोकाग्रनिवासी सिद्धोंमें मनको लगाते हुए शरीरका परित्याग करता हैं, तब उसके साधकपना कहलाता हैं । इस प्रकार पक्षादि इन तीन धर्मकायोंके द्वारा हिंसादिसे संचित उसका पाप दूर हो जाता है।
जैन आगममें चार आश्रम वणित है। जैसा कि उपासकाध्ययनमें कहा है-ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थ और भिक्षुक । जैनियों के ये चार आश्रम सातवें उपासकाध्ययन अंगसे निकले हैं।।२१।।
इनमेंसे ब्रह्मचारी पाँच प्रकार के है-उपनय, अवलम्ब, अदीक्ष, गूढ और नैष्ठिक । जो गणधर सूत्र (यज्ञोपवीत) को धारण कर और समस्त आगमोंका अभ्यास कर गृहस्थ धर्मका
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