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श्रावकाचार-संग्रह केवलज्ञानिनश्च कथ्यन्ते । ऋषय ऋद्धिप्राप्तास्ते चतुविधा:-राजब्रह्मदेवपरमभेदात् । तत्र राजर्षयो विक्रियाऽक्षीद्धप्राप्ता भवन्ति । ब्रह्मर्षयो बुद्धचोषधिऋद्धियुक्ताः कोय॑न्ते । देवर्षयो गगनगमद्धिसंयक्ताः कथ्यन्ते। परमर्षयः केवलज्ञानिनो निगद्यन्ते । अपि च
देशप्रत्यक्ष वित्केवल भूदिह मुनिः स्यादृषिः प्रोद्गद्धिरारूढश्रेणियुग्मोऽजनि यतिरनगारोऽपरः साधुरुक्तः । राजा ब्रह्मा च देव: परम इति ऋषिविक्रियाऽक्षीणशक्ति.
प्राप्तो बुद्धधौषधीशो वियदयनपटुर्विश्ववेदी क्रमेण ॥२२।। उक्तैरुपासकारणान्तिको सल्लेखना प्रीत्या सेव्या । स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इन्द्रियाणां मलानामुच्छ्वासनिःश्वासस्य च कदलीघात-स्वपाकच्युतिकारणवशात्संक्षयो मरणम् । तच्च द्विविधम्-नित्यमरणं तद्भवमरणं चेति । तत्र नित्यमरणं समये समये स्वायुरादीनां निवृत्तिः । तद्भवमरणं भवान्तरप्राप्तिरनन्तरोपश्लिष्टपूर्वभवविगमनम् । अत्र पुनस्तद्भवमरणं ग्राह्यम् । मरणान्तः प्रयोजनमस्या इति मारणान्तिको । बाह्यस्य कायस्याभ्यन्तराणां कषायाणां तत्कारणहापनया क्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना। उपसर्गे दुभिक्षे नरसि निःप्रतिक्रियायां धर्मार्थं तनत्यजनं अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी मुनि कहे जाते हैं । ऋद्धि-प्राप्त साधु ऋषि कहलाते है । वे चार प्रकारके होते हैं-राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि । विक्रिया और अक्षीण ऋद्धिके धारक साधु राजर्षि कहलाते हैं। बुद्धि और औषधिऋद्धिसे युक्त साधु ब्रह्मर्षि कहलाते है । आकाशगमनऋद्धिसे संयुक्त साधु देवर्षि कहे जाते हैं और केवलज्ञानी परमर्षि कहे जाते हैं। जैसा कि कहा है
देशप्रत्यक्षके धारक और केवलज्ञान-धारक मुनि कहे जाते हैं । जिन्हें ऋद्धि प्रकट हुई हैं, वे ऋषि कहे गये हैं। दोनों श्रेणियों पर आरूढ साधु यति हैं और शेष सर्व साधु अनगार कहे गये है। ऋद्धि धारक साध भी चार प्रकार के है-विक्रिया और अक्षीणशक्तिको प्राप्त साध राजर्षि हैं, बुद्धि और औषधिऋद्धिके स्वामी ब्रह्मर्षि है । आकाशमें गमन-कुशल साधु देवर्षि है और विश्ववेत्ता सर्वज्ञ परमर्षि जानना चाहिये ॥२२॥
उपयुक्त सभी प्रकारके उपासकों (श्रावकों) को मारणान्तिक सल्लेखनाका प्रीतिपूर्वक सेवन करना चाहिए। कदलीघातसे,अथवा अपना विपाककाल पूर्ण हो जाने के कारणवशसे अपने परिणामोंके द्वारा पूर्व भवमें उपार्जित आयुकर्मका, स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका, मनोबल, वचन बल, कायबलका और श्वासोच्छ्वासका क्षय होना मरण हैं । वह दो प्रकारका हैं-तित्यमरण और तद्भवमरण । प्रतिसमय अपने आयुकर्म के निषेकोंकी निर्वृत्ति रूप निर्जरा होनेको नित्यमरण कहते है। नवीन भवकी प्राप्ति और उसके अनन्तर पूर्ववर्ती भवके विनाशको तद्भवमरण कहते है। यहाँ पर तद्भवमरण का ग्रहण करना चाहिए। मरणका अन्तकाल जिसका प्रयोजन है ऐसी सल्लेखनाको मारणान्तिकी कहते है। बाहरी शरीरका और भीतरी कषायोंका क्रमसे उनके कारणोंको घटाते हुए सम्यक् प्रकारसे क्षीण करना सल्लेखना कहलाती है । निःप्रतीकार उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष पडने पर और बुढापा आ जाने पर धर्मकी रक्षाके लिए शरीरका त्याग करना सल्लेखना है। इसलिए आवश्यकादि करते समय नित्य प्रार्थना किये जानेवाले समाधिमरणके अवसर पर यथाशक्ति प्रयत्न करके और उस समय शीत-उष्ण आदि परीषहोंके प्राप्त होने पर
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