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श्रावकाचार-संग्रह
ब्रह्मचारी शुक्रशोणितबीजं रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जा शुक्र सप्तधातुमने कत्रोतोविलं मूत्रपुरीषभाजनं कृमिकुलाकुलं विविधव्याधिविधुरमपायप्रायं कृमिभस्मविष्टापर्यवसानमङ्गमित्यनङ्गाद् विरतो भवति ।
आरम्भविनिवृत्तोऽसिम षिकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भात् प्राणातिपातहेतोरितो भवति । परिग्रहविनिवृत्तः क्रोधादिकषायाणामार्त्तरौद्र यो हिसादिपञ्चपापानां भयस्य च जन्मभूमिः दूरोत्सात धर्म्यशुक्लः परिग्रह इति मत्वा दशविधबाह्यपरिग्रहाद्विनिवृत्तः स्वच्छः सन्तोषपरो भवति ।
अनुमतिविनिवृत्त आहारादीनामारम्भाणामनुमननाद्विनिवृत्तो भवति ।
उद्दिष्टविनिवृत्तः स्वोद्दिष्टपिण्डोपधिशयनवसनादविरतः सन्नेकशाटकधरो मिक्षाशनः पाणिपात्रपुटेनोपविश्य मोजी रात्रिप्रतिमादिवितप.समुद्यत आतापनावियोग रहितो भवति । अणुव्रत महाव्रतिनो समितियुक्तो संयमिनौ भवतः । समिति विना विरतो । तथा चोक्तं वर्गणाखण्डस्य बन्धनाधिकारे
सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा हैं । इस प्रतिमाका धारक ब्रह्मचारी पुरुष इस शरीरको मातापिता के रज- वीर्य से उत्पन्न हुआ, रस, रक्त, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा और वीर्य इन सात धातुओंसे भरा हुआ अनेक छिद्ररूप बिलों वाला, मल-मूत्रका भाजन, कृमि- कुलसे व्याप्त, विविध रोगों से ग्रस्त, विनश्वर अपायमय और अन्तमें कीडे पडकर सडने वाला अथवा जलाया जानेपर भस्मभावको प्राप्त होनेवाला अथवा किसीके द्वारा खाये जानेपर विष्टारूप परिणत होनेवाला देखकर काम सेवन से विरत होता हैं ।
आठवीं आरम्भ त्यागप्रतिमा है। इस प्रतिमा वाला जीवघातके कारणभूत असि, मषी, कृषि, वाणिज्य आदि आरम्भोंसे विरत हो जाता हैं ।
नववीं परिग्रहत्याग प्रतिमा हैं । इस प्रतिमाका धारक श्रावक परिग्रहको क्रोधादि कषायोंके उत्पन्न करने की, आर्त्त - रौद्रध्यानकी हिंसादि पञ्च पापोंकी और जन्मभूमि समझ कर तथा उसे धर्म-शुक्लध्यानसे दूर करनेवाला मानकर बाहरी दस प्रकारके परिग्रहसे निवृत्त होता है और हृदय में स्वच्छ सन्तोषको धारण करता हैं ।
दसवीं अनुमतित्याग प्रतिमा है। इस प्रतिमाका धारक श्रावक आहार बनाने आदि कार्योके आरम्भोंकी अनुमोदनासे भी निवृत्त हो जाता है ।
ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा हैं। इस प्रतिभाका धारक श्रावक अपने निमित्त बने हुए भोजन, उपकरण, शय्या और वस्त्र आदिसे भी विरत होकर एकमात्र शाटक ( धोती या चादर ) को धारण करता हैं, भिक्षावृत्तिसे पाणिपुट द्वारा बैठकर भोजन करता हैं, रात्रिप्रतिमा आदि तपोंके करनेमें उद्यत रहता है और दिनमें आतापन योग आदिसे रहित रहता है।
समिति युक्त अणुव्रती और महाव्रती पुरुष क्रमशः देशसंयमी और सकलसंयमी कहलाते है और समिति के बिना वे देशविरत और सर्वविरत कहलाते हैं । जैसा कि षट्खण्डागमके वर्गणाखण्ड के बन्धन अधिकारमें कहा हैं
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