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श्रावकाचार-संग्रह द्विसागरोपमकालो दिव्यभोगमनभूय समनुष्ठितभोगनिदानः स्वजीवितान्ते ततः प्रच्यतः प्रत्यन्तपुरे सुमित्रनामा मित्रराज्ञः पुत्रोऽभूत् । निदर्शनतपः कृत्वा व्यन्तर आसीत् । तत: कुणिकमरपतेः श्रीमतीदेध्याश्च श्रेणिकोऽभूदिति । एवं दृष्टादृष्टफलस्याप्यहितं मांसम् ।
। मद्यपस्य हिताहितविकता वाच्यावाच्यता गम्यागम्यता कार्याकायं च नास्ति । मद्यमुपसेविनो जनस्य स्मृति विनाशयति । विनष्टस्मृतिक: किं न करोति, कि न भाषते, कमुन्मार्ग न गच्छति? सर्वदोषाणामास्पदं तदेव तस्याख्यानम् ।।
तथाहि-कश्चिद् ब्राह्मणो गुणी गङ्गास्नानार्थ गच्छन्नटवीप्रदेशे प्रहसनशीलेन मदिरामदोन्मत्तेन कान्तासहितशबरेण स निरुध्य मांसभक्षण-सुरापान-शबरीसंसर्गेषु भवताऽन्यतममङ्गीकरणीयमन्यथा भवन्तं व्यापादयामीत्युक्तः किंकर्तव्यतामूढः प्राण्यङ्गत्वान्मांसभक्षणे पापोपलेपो भवति, शबरीसंसर्गे जातिनाशः संजायते, पिष्टोदकगुडधातस्यादिसमुत्पन्नं निरवद्यं मद्यमिदं पिबामीति पीत्वा विनष्टस्मृतिरगम्यगममक्ष्यभक्षणं च कृतवान् । तथा हि-मद्यपायिनामपराधेन द्वीपायनमुनिकोपार भस्मीभूतायां द्वारवत्यां विनष्टा यादवा इति । श्रावकके सर्ववत ग्रहण कर लिए । खदिरसार दो सागरोपम काल तक दिव्य भोगोंका अनुभव कर और आगामी भवमें भी भोगोंके पानेका निदान कर अपने जीवनके अन्तम वहाँसे च्युत हुआ और प्रत्यन्तपुर नामक नगरमें मित्र राजाके सुमित्र नामका पुत्र हुआ । इस भवमें वह सम्यक्त्वरहित तप करके व्यन्तरदेव हुआ। पुनः वहाँसे च्युत होकर कुणिक नरपति और श्रीमती देवीके श्रेणिक नामका राजा हुआ। इस प्रकार उक्त कथानकोंसे यह स्पष्ट है कि मांस-भक्षणका प्रत्यक्ष फल भी अहितकर है और परोक्ष फल भी अहितकर है । अतः मांस-भक्षणका त्याग करना चाहिये।
मदिरा-पान करनेवालेके हित-अहितका कुछ विचार नहीं रहता, क्या कहना चाहिये, क्या नहीं? आदि किसी प्रकारका विवेक नहीं रहता है। मद्य-सेवी मनुष्यकी स्मरणशक्ति नष्ट हा जाती हैं और जिसकी स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है, वह कौन-सा पाप कार्य नहीं करता? कौन-से दुर्वचन नहीं बोलता? और किस कुमार्ग पर नहीं जाता हैं? कहने का तात्पर्य यह है कि वह सभी दोषोंका स्थान बन जाता है। इसका एक कथानक इस प्रकार है
कोई गुणी ब्राह्मण गंगा स्नानके लिए जा रहा था। किसी अटवी-प्रदेशमें मदिराके मदसे उन्मत्त, किसी हँसी-मजाक करनेवाले स्त्री-सहित भीलने उसे रोक कर कहा कि मांस-भक्षण, मद्य-पान और हमारी भीलनीके साथ संसर्ग, इन तीनोंमेंसे कोई एक कार्य आप अंगीकार करें, अन्यथा मै आपको मार डालूंगा। ऐसा कहने पर वह ब्राह्मण किंकर्तव्य-विमूढ हो गया और विचारने लगा कि प्राणीका अंग होनेसे मांस-भक्षण करने पर तो पाप लगेगा, भीलनीके साथ संसर्ग करने पर मेरी जातिका नाश हो जायगा । अतएव अन्नकी पीठी जल गुड धातकीके फूल आदिसे उत्पन्न हुआ यह मद्य निर्दोष हैं, अतः इस मद्यको मै पीता हूँ । इस प्रकार विचार कर उसने मद्य पीना स्वीकार किया और पी करके स्मरण-शक्ति नष्ट हो जानेसे उसने अगम्यगमन भी किया अर्थात् भीलनीके साथ संसर्ग भी किया और मांस-भक्षण भी किया। और भी देखोमद्य पीनेवाले यादवोंके अपराधसे द्वीपायन मुनिके कोप द्वारा द्वारिकाके भस्म होने पर सब यादव भी नष्ट हो गये।
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