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पुरा पार्थसिद्धयुपाय
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वचनमनः कायातां दुःप्रणिधानमनादरश्चैव । स्मृत्यनुपस्थानयुताः पञ्चेति चतुर्थशीलस्य ।। १९१ अनवेक्षिताप्रमाजितमादानं संस्तरस्तथोत्सर्गः । स्मृत्यनुपस्थानमनादरश्च पञ्चोपवासस्य ॥। १९२ आहारो हि सचित्तः सचित्तमिश्रः सचित्तसम्बन्धः । godasभिषवोऽपि च पञ्चामी षष्ठशीलस्य ।। १०३
परदातृव्यपदेश: सचित्त निक्षेपतत्पिधाने च । कालस्यातिक्रमणं मात्सर्त्य चेत्यतिथिदाने ।। १९४ जीवितमरणाशंसे सुहृदनुराग सुखानुबन्धश्च। सनिदानः पञ्चैते भवन्ति सल्लेखनाकाले ।। १९५ इत्येतानतिचारानपरानपि सम्प्रतर्व्य परिवर्ज्य । सम्यक्त्वव्रतशीलै रमलैः पुरुषार्थसिद्धिमेत्य चिरात ।। १९६ चारित्रान्तर्भावात्तपोऽपि मोक्षाङ्गमागमे गदितम् । अनिगूहित निजवीर्यैस्तदपि निवेव्यं समाहितस्वान्तैः ॥ १९७ अनशनमवमोदर्य विविक्तशय्यासनं रसत्यागः ।
कायक्लेशो वृत्तेः संख्या च निषेव्यमिति तपोबाह्यम् ॥। १९८ विनयो वैयावृत्त्यं प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्गः ।
स्वाध्यायोऽथ ध्यानं भवति निषेध्यं तपोऽन्तरङ्गमिति ।। १९९ 'जिनपुङ्गवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम् ।
सुनिरूप्य निजां पदवीं शक्ति च निषेव्यमेतदपि ।। २०० इद मावश्यकषट्कं समतास्तववन्दना प्रतिकमणम् । प्रत्याख्यानं वपुषो व्युत्सर्गश्चेति कर्तव्यम् ॥ २०१ प्रणिधान, कायदुः प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान, ये पांच सामायिकशिक्षाव्रतरूप चतुर्थ शीलव्रतके अतीचार है ॥ १९१ ।। अनवेक्षित अप्रमार्जितादान अनवेक्षित अप्रमार्जित संस्तर, अनवेक्षित अप्रमार्जित - उत्सर्ग, स्मृत्यनुपस्थान और अनादर ये पाँच प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतरूप पंचमशीलके अतीचार हैं ।। १९२॥ सचित्ताहार, सचित्तसंमिश्र, सचित्तसम्बन्ध, दुष्पक्व और अभिषव आहार, ये पाँच भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रतरूप षष्ठ शील के अतीचार हैं ॥ १९३॥ परदातृ-व्यपदेश, सचित्त निक्षेप, सचित्तपिधान, कालातिक्रमण और मात्सर्य, ये पांच अतिथि संविभागशिक्षाव्रतरूप सप्तम शील के अतीचार हैं ।। १९४ । । जीविताशंसा, मरणाशंसा, सुहृदनुराग, सुखानुबन्ध और निदान, ये पांच अतीचार सल्लेखना काल में होते हैं ।। १९५।। इन उपर्युक्त सत्तर अतीचारों को, तथा इसी प्रकार के संभव अन्य भी अतिचारों को स्वयं विचार करके छोड़ने वाला श्रावक निर्मल सम्यक्त्व, व्रत और शीलोंके द्वारा शीघ्र ही पुरुषार्थ की सिद्धि को प्राप्त होता हैं । । १९६ ॥ चारित्रमें अन्तर्भाव होने से तपभी मोक्षका कारण आगममें कहा गया हैं, इसलिए आपने बल-वीर्यकी नहीं छिपाकर सावधान- चित्त श्रावकोंको उस तपका भी सेवन करना चाहिए ।।१९७। वह तप दो प्रकारका है - बाह्य तप और अन्तरंग तप । इनमेंसे बाह्य तप छह प्रकारका है- अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश । इन तपोंका यथाशक्ति सेवन करे || १९८ ।। विनय, वैयावृत्त्य, प्रायश्चित्त, उत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यान ये छह अन्तरंग तप हैं, इनका भी आचरण करना चाहिए ।।१९९ ॥ जिनेश्वरदेवके प्रवचन में मुनीश्वरोंका जो आचरण कहा गया है, उसे भी अपनी पदवी और शक्तिका भले प्रकारसे विचार करके पालन करना चाहिए ॥ २०० ॥ जिनागममें मुनियोंके छह आवश्यक कर्त्तव्य कहे गये है- सामायिक,
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