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यशस्तिलक चम्पूगत-उपासकाध्ययन
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द्वौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥ ४४२ जातयोऽनादयः सर्वास्तत्क्रियापि तथाविधाः श्रुति शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः || ४४३ स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् । तत्क्रियाविनियोगाय जैनागमविधिः परम् ।। ४४४ भ्रान्तिनिर्मुक्ति हेतुधीस्तत्र दुर्लभा । संसारव्यवहारे तु स्वतः सिद्धे वृथागमः । ४४५ सर्व एव हि जनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ।। ४४६ द्वये देवसेवाधिकृताः संकल्पिताप्त पूज्यपरिग्रहाः कृतप्रतिमापरिग्रहाश्च । संकल्पोऽपि दलफलोपलादिष्विव न समयान्तरप्रतिमासु विधेयः । यतः
शुद्धे वस्तुनि संकल्पः कन्याजन इवोचितः । नाकारान्तरसंक्रान्ते यथा परपरिग्रहे ।। ४४७
तत्र प्रथमान् प्रति समयसमाचार विधिमभिधास्यामः । तथा हिअर्हतनुर्मध्ये दक्षिणतो गणधरस्तथा पश्चात् । श्रुतगीः साधुस्तदनु च पुरोऽपि दृगवगमवृत्तानि ।। ४४८ भूर्जे फलके सिचये शिलातले सैकते क्षितो व्योम्नि । हृदये चेते स्याप्या: समयसमाचारवेदिभिनित्यम् ॥ ४४९ रत्नत्रय पुरस्काराः पञ्चापि परमेष्ठिनः । भव्यरत्नाकरानन्दं कुर्वन्तु भुवनेन्दवः ॥ ४५०
न कोई धर्म होता है और न करने से न कोई अधर्म होता हैं । अर्थात् - ऊपर भोजनकी शुद्धिके लिए जो क्रिया बतलायी है उसके करनेसे धर्म नहीं होता और न करनेसे अधर्म नहीं होता हैं ।।४४०४४१ ।। गृहस्थों का धर्म दो प्रकारका होता हैं - एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक । इनमें से लौकिक धर्म लोककी रीतिके अनुसार होता हैं और पारलौकिक धर्म आगमके अनुसार होता है ||४४२ || सब जातियाँ अनादि हैं और उनकी क्रिया भी अनादि हैं। उसमें वेद अथवा अन्य शास्त्र प्रमाण रहो, उससे हमारी कोई हानि नहीं है ||४४३ ।। रत्नकी तरह जो वर्ण अपने जन्म ही विशुद्ध होते हैं उन्हें उनकी क्रियाओं में लगानेके लिए जैन आगमोंका विधान ही उत्कृष्ट हैं ।।४४४।। क्योंकि संसार - भ्रमणसे छूटने के कारणोंमें मनको लगानेवाले ज्ञानका पाना लोकमें अतिदुर्लभ हैं । रहा लौकिक व्यवहार, वह तो स्वयं सिद्ध हैं उसको बतलाने के लिए किसी आगमकी आवश्यकता नहीं है ||४४५ ॥ | तथा सभी जैनधर्मानुयायियोंको वह लौकिक व्यवहार मान्य हैं जिससे उनके सम्यक्त्वमें हानि न आती हो और न उनके व्रतोंम दूषण लगता हो ॥ ४४६ ॥ देवपूजा के दो रूप हैं - एक तो पुष्प आदिमें जिन भगवानकी स्थापना करके पूजा की जाती हैं और दूसरे, जिन-विम्बों में जिन भगवान्की स्थापना करके पूजा की जाती हैं। जिस प्रकार पुष्प फल या पाषाण में स्थापना की जाती हैं उस तरह अन्य देव हरिहरादिककी प्रतिमा में जिन भागवानुकी स्थापना नहीं करना चाहिए; क्योंकि जैसे शुद्ध कन्यामें ही पत्नीका संकल्प किया जाता है - दूसरेसे विवाहिता में नहीं, वैसे ही शुद्ध वस्तुमें ही जिनदेवकी स्थापना करना उचित है, जो अन्यरूप हो चुकी हैं उसमें स्थापना करना उचित नहीं है ||४४७ || ऊपर जो दो प्रकारके पूजन कहे हं उनमें से पुष्पादिकमें जिन भगवान् की स्थापना करके पूजा करनेवालोंके लिए पूजाविधि बतलाते ह - पूजाविधिके ज्ञाताओंको सदा अर्हन्त और सिद्धको मध्यमे, आचार्यको दक्षिणमें, उपाध्यायको पश्चिम में, साधुको उत्तर में और पूर्व में सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको क्रमसे भोजपत्रपर, लकडी के पटियेपर, वस्त्रपर, शिलातलपर, रेत निर्मित भूमिपर, पृथ्वीपर, आकाश में और हृदयमें स्थापित करना चाहिए ।।४४८-४४९ ।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी
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