________________
१७४
श्रावकाचार-संग्रह
नरोरगसुराम्भोजविरोचनरुचिश्रियम् । आरोग्याय जिनाधीशं करोम्यर्चनगोचरम् ।। ४५१ प्रत्नकर्षविनिर्मुक्तान्नुत्नकर्मविवजितान् । यत्नतः संम्तुवे सिद्धान् रत्नत्रयमहीयसः ।। ४५२ विचार्य सर्वमैतिहमाचार्यत्वमपेयुष : आचार्यपर्यानामि संचार्य हृदयाम्बुजे ॥ ४५३ अपास्तकान्तवावीन्द्रानपारागमपारगान् । उपाध्यायानुपासेऽहमपायाय श्रुताप्तये ॥ ४५४ बोधापगाप्रवाहेन विध्यातानङ्गवन्हयः । विध्याराध्याघ्रयः सन्तु साध्यबोध्याय साधवः ।।४५५ मुक्तिलक्ष्मीलतामूलं युक्तिधीवल्लरीवनम् । भक्तितोऽर्हामि सम्यक्त्वं भुक्तिचिन्तामणिप्रदम्।।४५६ नेत्र हिताहितालोके सूत्र धीसौधसाधने । पात्रं पूजाविधेः कुर्वे क्षेत्र लक्ष्म्याः समागमे ।। ४५७ धर्म योगिनरेन्द्रस्य कर्मवैरिजयाजने । शर्मकृत्सर्वसत्त्वानां धर्मधीवृत्तमाये ॥ ४५८ जिनसिद्धसूरिवेशकसाधुश्रद्धानबोधवृत्तानाम् । कृत्वाटतयोमिष्टि विदधामि ततःस्तवं युक्त्या।।४५९
तत्त्वेषु प्रणयः परोऽस्य मनसः श्रद्धानमुक्तं जिन
रेतद्वित्रिदशप्रमेदविषयं व्यक्तं चतुभिर्गुणैः । अष्टाङ्ग भुवनत्रयाचितमिदं मूढरपोढं त्रिमि
श्चित्ते देव बधामि संसृतिलतोल्लासावसानोत्सवम् ॥ ४६० रत्नत्रयसे भूषित और जगत्के लिए चन्द्रमाके तुल्य पाँचों परमेष्ठी भव्य जीवरूपी समुद्रको आनन्दित करें।।४५०॥ तथा मै आरोग्य-प्राप्तिके लिए मनुष्य,नाग और देवरूपी कमलोंके लिए सूर्यकी शोभाको धारण करनेवाले जिनेन्द्र देवकी पूजा करता हूँ ॥४५१॥ पुराने कर्मोके बन्धनसे मुक्त हुए और नवीन कर्मोके आस्रवसे रहित तथा रत्नत्रयसे महान् उन सिद्धोंका मै यत्नपूर्वक स्तवन करता हूँ।।४५२।। समस्त शास्त्रोंका विचार करके आचार्य पदको प्राप्त हुए श्रेष्ठ आचार्योको अपने हृदय-कमलमें विराजमान करके पूजा करता हूँ ॥४५३।। प्रमुख एकान्तबादियोंको हरानेवाले और अपार श्रुत-समुद्र के पारगामी उपाध्याय परमेष्ठीकी मै पुण्य औरश्रुतकी प्राप्तिके लिए उपासना करता है॥४५४|| ज्ञानरूपी नदीके प्रवाहसे जिन्होंने कामरूपी अग्निको बुझा दिया है और जिनके चरण विधिपूर्वक पूजनीय हैं,वे साधु आत्माकी साधनाके लिए होवे ॥४५५।। जो मुक्ति लक्ष्मीरूपी लताका मूल है,युक्ति लक्ष्मीरूपी वेलके लिए जलके तुल्य है और जिससे भोग सामग्री प्राप्त होती है उस चिन्तामणिको देनेवाले सम्यग्दर्शनकी मै भक्तिपूर्वक पूजा करता हूँ ॥४५६।। जो हित और अहितको देखनेमें नेत्रके समान है, बुद्धिरूपी महलको साधने में सूत्रके (जिससे नापकर मकान बनाया जाता हैं) समान हैं तथा लक्ष्मीके समागमके लिए क्षेत्रके समान हैं, उस सम्यग्ज्ञानको मै पूजाविधिका पात्र बनाता हूँ अर्थात् उसकी मै पूजा करता हूँ ॥४५७।। जो योगीरूपी राजाके कर्मरूपी वैरियोंको जीतनेमें धनुषके समान है तथा सब प्राणियोंको सुख देने वाला हैं,मैं धर्म बुद्धिसे उस चारित्र' की शरण जाता हूँ॥४५८।। इस प्रकार अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रकी अष्टद्रव्यसे पूजन करके मै इनकायुक्तिपूर्वकस्तवनकरताहूँ।।४५९।। (सबसे प्रथम सम्यग्दर्शनकी भक्ति इस प्रकार करे-) जिनेन्द्र देवने तत्त्वोंमें मनकी अत्यन्त रुचिको सम्यग्दर्शन कहा हैं । इस सम्यग्दर्शनके दो, तीन और दस भेद बतलाये हैं। तथा प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुणके द्वारा सम्यक्त्वकी पहचान होती है। उसके निःशंकित, निःकांक्षित आदि आठ गुण है । जो भुवनत्रयसे पूजित हैं, तीन प्रकारकी मूढतासे रहित हैं । हे देव! संसार रूपी लताका अन्त करनेवाले और तीनों लोकोंमें पूज्य उस सम्यग्दर्शनको मै अपने हृदयमें धारण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org