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श्रावकाचार-संग्रह
माप्तेषु बहुत्वं यः सहेत पर्यायविभूतिष्वपि महेत । नूनं वहिणादिषु देवतेषु कं तस्य स्फुटति तथाविधेषु ।। ५५६ बोक्षासु तपसि वचसि त्वयि नयदिहैक्यं सकलगुणेरहीन । तस्मादवैमि जगतां त्वमेव नाथोऽसि बुधोचितपादसेव ।। ५५७ da cafe कोऽपि तथापि विमुखचित्तो यदि विदलित मदनविशिख । निन्द्यः स एव धूके दिवापि विदृशीनमुपालभते न कोऽपि ।। ५५८ निष्किञ्चनोऽपि जगते न कानि जिन दिशसि निकामं कामितानि । नैवात्र चित्रमथवा समस्ति वृष्टिः किमु खादिह नो चकास्ति ।। ५५९ इति तदमृतनाथ स्मरशरमाथ त्रिभुवनपतिमतिकेतन । मम दिश जगदीशप्रशमनिवेश त्वत्पदनुतिहृदयं जिन ।। ५६० अमरतरुणीनेत्रानन्दे महोत्सवचन्द्रमाः स्मरमदमयध्वान्तध्वंसे मतः परमोऽर्यमा । अवयहृदयः कर्मारातौ नते च कृपात्मवानिति विसदृशव्यापारस्त्वं तथापि भवान्महान् ॥५६१ अनन्तगुण संनिधौ नियतबोध संपनिधो श्रुताब्धिबुधसंस्तुते परिमितोक्तवृत्तस्थिते । जिनेश्वर सतीदृशं त्वयि मयि स्फुटं तादृशे कथं सदृश निश्चयं तदिवमस्तु वस्तुद्वयम् ॥५६२ इसलिए छोड देते है कि वह जड या जलसे पैदा हुआ है ।। ५५५ ।। हे पूज्य ! जिन्हें अनुक्रम से होनेवाले बहुत आप्नोंकी मान्यता सह्य नहीं हैं निश्चय ही अवतार रूप ब्रह्मादि देवताओंके सामने वे अपना सिर फोडते हैं । अर्थात् अनेक देवताओंको जब वे नहीं मानते और फिरभी ब्रह्मादिक देवताओं को सिर नवाते है अतः उनका उन्हें सिर नवाना सिर फोडना हो जैसा है ।। ५५६|| हे सकलगुणशाली! आपके चारित्रमें, तपमें और वचनमें एकरूपता पायो जाती हैं अर्थात् जैसा आप कहते हैं वैसा ही आचरण भी करते हैं । इसलिए हे देवताओंसे पूजित चरण! आप ही तीनों लोकोंके स्वामी हैं, ऐसा मै मानता हूँ ।।५५७।। कामके वाणोंको चूर्ण कर डालनेवाले हे देव ! फिर भी यदि कोई तुमसे विमुख रहता हैं तो वही निन्दाका पात्र है, क्योंकि दिनके समय उल्लूके अन्धे हो जानेपर कोई भी सूर्यको दोष नहीं देता । ५५८|| हे जिन ! आपके पास कुछ भी नहीं है फिर भी आप जगत्की किन इच्छित वस्तुओंको नहीं देते ? अर्थात् सभीको इच्छित वस्तु देते हैं । किन्तु इसमें कोई अचरजकी बात नहीं हैं, क्योंकि आकाशके पास कुछ भी नहीं हैं फिर भी क्या आकाशसे वर्षा होती नहीं देखी जाती ।। ५५९ । इसलिए हे मोक्षपति ! हे कामके नाशक !
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तीनों लोकोंके स्वामियोंकी बुद्धिके धाम ! हे शान्तिके आगार ! हे जगत् के स्वामी जिनेन्द्रदेव ! मुझे अपने चरणोंमें नमस्कार भाव रखने वाला हृदय प्रदान करें अर्थात् मेरा हृदय सदा आपके चरणोंमें लीन रहे । ५६०॥ हे जिनदेव ! देवांगनाओंके नेत्रोंको आनन्दित करनेके लिए आप आनन्ददायक चन्द्रमा है और कामके मदरूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिए उत्कृष्ट सूर्य हैं । कर्मरूपी शत्रुके लिए आपके हृदय में थोडी भी दया नहीं हैं किन्तु जो आपको नमस्कार करता है उस पर आप कृपालु है । इस प्रकार विपरीत आचरण करनेपर भी आप महान् हैं ।। ५६१ ।। आप अनन्त गुण युक्त है और में थोडेसे परिमित ज्ञानका स्वामी हूँ । श्रुतके समुद्र विद्वानोंने पका स्तवन किया है और मेरे पास परिमित शब्द है और परिमित छन्द हैं । हे जिनेश! आपमें और मुझमें इतने स्पष्ट अन्तरके होते हुए हम दोनों समान कैसे हो सकते है इसलिए मैं और आप
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