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यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन
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साकारं नश्वरं सर्वमनाकारं न दृश्यते । पक्षद्वयविनिर्मुक्तं कथं ध्यायन्ति योगिनः ॥ ६९० अत्यन्तं मलिनो देहः पुमानत्यन्त निर्मलः । । देहादेनं पृथक्कृत्वा तस्मानित्य विचिन्तयेत् ।। ६९१ तोयमध्ये यथा तैलं पृथग्भावेन तिष्ठति । तथा शरीरमध्येऽस्मिन्पुमानास्ते पृथक्तया ॥ ६९२ दध्नः सपिरिवात्मायमुपायेन शरीरत: । पृथक्रियत तत्त्वज्ञेश्चिरं संसर्गवानपि । ६९३ पुष्पामोदौ तरुच्छाये यद्वत्सकलनिष्कले । तद्वत्तो देहदेहस्थो यद्वा लपनविम्बवत् ॥ ६९४ एकस्तम्भं नवद्वारं पञ्चपञ्चनाश्रितम् । अनेककक्षमेवेदं शरीरं योगिनां गृहम् ॥ ६९५ ध्यानामृतान्नतप्तस्य क्षान्तियोषिद्रतस्य च । अत्रैव रमते चित्तं योगिनो योगबान्धवे ॥ ६९६ रज्जुभिः कृष्यमाणः स्याद्यथा पारिप्लवो हयः । कृष्टस्तथेन्द्रियरात्मा ध्याने लीयेत न क्षणमः ॥६९७ रक्षां संहरणं सृष्टि गोमुद्रामृतवर्षणम् । विधाय चिन्तयेदाप्तमाप्तरूपधरः स्वयम् ।। ६९८
शुद्ध आत्माको ही परमात्मा कहते हैं ।।६८९।। जो साकार हैं वह विनाशी हैं और जो निराकार हैं वह दिखायी नहीं देता। किन्तु आत्मा तो न साकार है और न निराकार है,उसका योगीजन कैसे ध्यान करते है? ।।६९०'। शरीर अत्यन्त गन्दा है किन्तु आत्मा अत्यन्त निर्मल है। अतः शरीरसे आत्माको जुदा करके सदा उसका ध्यान करना चाहिए ।।६९१।। जैसे पानीके बीच में रहकर भी तेल पानीसे जुदा रहता है.वैसे ही शरीर में रहकर भी आत्मा उबसे अलग ही रहता हैं ॥६९२।। जैसे घी और दहीका सम्बन्ध पुराना है फिर भी जानकार लोग उपायके द्वारा दहीसे घीको अलग कर लेते हैं वैसे ही इस आत्माका शरीरके साथ यद्यापि बहुत पुराना सम्बन्ध हैं,फिर भी तत्त्वके ज्ञाता पुरुष उपायके द्वारा आत्माको शरीरसे अलग कर लेते हैं ।। ८ ९३।। अथवा जैसे पुष्प साकार हैं किन्तु उसकी गन्ध निराकार हैं,या वृक्ष साकार हैं किन्तु उसकी छाया निराकार है अथवा मुख साकार हैं किन्तु उसका प्रतिविम्ब निराकार हैं वैसे ही शरीर और शरीरमें स्थित आत्माको जानना चाहिए ।। ६९४।। यह शरीर ही योगियोंका धर है। यह घर एक आयुरूपी स्तम्भपर ठहरा हुआ हैं। इसमें नौ द्वार है-दोनों आँखोंके दो छिद्र, दोनों कानोंके दो छिद्र, नाकके दो छिद्र, मुखक
र मल-मूत्र त्यागके दो छिद्र । पाँचों इन्द्रियरूपी मनुष्य इसमें वास करते है और या अनेक कोठरियोंसे युक्त हैं।। ६९५॥ चुंकि यह शरीर योगका सहायक हैं इसलिए जो योगी ध्यानरूपी अन्न-जलसे सन्तुष्ट रहते है और क्षमारूपी स्त्रीमें आसक्त होते है उनका मन इसी में रमता है, इससे बाहर नहीं जाता ॥६५६।। जैसे रासके खींचनेसे वोडा चंचल हो जाता हैं वैसे ही इन्द्रियों-. के द्वारा आकृष्ट आत्मा क्षणभर भी ध्यानमें लीन नहीं हो सकता। अतः ध्यानी पुरुषको इन्द्रियोंको वशमें रखना चाहिए, स्वयं उनके वश नहीं होना चाहिए ॥६९७।। रक्षा, संहार,सृष्टि, गोमुद्रा और अमृतवृष्टि को करके स्वयं आप्त स्वरूपधारी मनुष्यको आप्तके स्वरूपका ध्यान करना चाहिए ।।६९८॥ विशेबार्थ-धर्मध्यानके संस्थान विचय नामक भेदके भी चार अवान्तर भेद है-पिण्डस्थ पदस्थ रूपस्थ और रूपातोत । पिण्डस्थध्यानमें पाँच धारणाएँ होती है-पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्त्वरूपवती। पार्थिव धारणाका स्वरूप इस प्रकार हैं-प्रथम ही योगी निःशब्द, तरंगरहित क्षीरसमुद्रका ध्यान करता है। उसके मध्य में एक सुनहरे रंगके सहस्रदल कमलका ध्यान करता है। फिर उस कमलके मध्य में मेरुके समान एक कणिकाका ध्यान करता हैं और फिर उस कणिकाके ऊपर स्थित सिंहासनपर अपनेको बैठा हुआ विचारता है। यह पार्थिवी धारणा है। अब आग्नेयी धारणाको कहते है- फिर वह योगी अपने नाभिमण्डल में सोलह पत्रोके एक कमलका
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