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शीलसप्तकवर्णनम्
घिकाकांक्षण क्षेत्रवृद्धिः । इदमिदं मया योजनादिभिरभिज्ञानं कृतमिति तदभावः स्मृत्यन्तराधानम् । दिग्विरमणव्रतस्य प्रमादान्मोहार व्यासङ्गादतीचारा भवति ।
मदीयस्य गृहान्तरस्य तडागस्य वा मध्यं मुक्त्वा देशान्तरं न गमिष्यामीति तन्निवृत्तिर्देशविरतिः । प्रयोजनमपि दिग्विरतिवद्देशविरतिव्रतस्य । तस्य पञ्चातिचारा भवन्ति-आनयनं प्रेष्यप्रयोगः शब्दानुपात: रूपानुपात: पुद्गलक्षेप इति । तत्रात्मना सङ्कल्पितदेशे स्थितस्य प्रयोजनवशाद्यत्किञ्चिदानयेत्याज्ञापनमानयनम् । परिच्छिन्न देशा बहिः स्वयमगत्वाऽन्य प्रेष्यप्रयोगनं वाभिप्रेत व्यापारसाधनं प्रेष्यप्रयोगः । व्यापारकरान् पुरुषानुद्दिश्याभ्युत्का सिकादिकरणं शब्दानुपातः । मम रूपं निरीक्ष्य व्यापारमचिरा निष्पादयन्तीति स्वाङ्गदर्शनं रूपानुपातः । कर्मकरानन्द्दिश्य लोष्ठपाषानादिनिपातः पुद्गलक्षेप इति । दिग्विरतिः सार्वकालिकी । देशविर तिथंथाशक्ति कालनियमेनेति । प्रयोजनं विना पापादान हेतुरनर्थदण्डः । स च पञ्चविधः - अपध्यानं पापोपदेशः प्रमादाचरितं हिंसाप्रदानं अशुभश्रुतिरिति । तत्र जयपराजयवधबन्धाङ्गच्छेदद सर्वस्व हरणादिकं कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम् । पापोपदेशश्चतुविधः क्लेशवणिज्या तिर्यग्वणिज्या वधकोपदेशः प्रवेश करनेसे ( तथा पूर्वादि दिशाओंकी सीमित मर्यादासे बाहर जानेसे ) तिरछी मर्यादाका उल्लंघन करना तिर्यगतिक्रम है। पहले जो दिशाओंकी योजनादिके द्वारा परिमाण लिया था पुनः लोभके वशसे उससे अधिकको आकांक्षा करना क्षेत्रवृद्धि हैं । मैने योजनादिकोंके द्वारा अमुकअमुक दिशा में इतना - इतना परिमाण किया हैं, उस मर्यादाका विस्मरण हो जाना स्मृत्यन्तराधान है । दिग्विरमण व्रतके ये सब अतीचार प्रमादसे, मोहसे अथवा चित्तके अन्यत्र लगनेसे होते हैं ।
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मैं अपने-अपने घरके मध्य भागको, अथवा तालाब ( उद्यान आदि) के मध्य भागको छोड कर ( इतने समय तक ) इससे बाहर अन्य देश में नहीं जाऊँगा, इस प्रकारकी देश-निवृत्तिको देशविरतिव्रत कहते हैं । इस देशविरतिव्रतका प्रयोजन भी दिग्विरतिव्रत के समान जानना चाहिए । इस व्रतके पाँच अतीचार इस प्रकार है-आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेत्र | अपने द्वारा संकल्पित देशमें अवस्थित रहते हुए भी प्रयोजनके वशसे ( मर्यादाके बाहरसे) 'तुम यह वस्तु ले आओ' इस प्रकारकी आज्ञा देकर वस्तुको मँगाना आनयन अतीचार हैं। सीमित देशसे बाहर स्वयं नहीं जाकर किसी अन्यको भेजकर ही अपना अभीष्ट व्यापार साधन करना प्रेष्यप्रयोग है। सीमित क्षेत्रसे कार्य करनेवाले पुरुषोंको लक्ष्य करके खाँसना, चुटकी आदि
जाना शब्दानुपात है । सीमासे बाहर कार्य करनेवाले लोग मेरे रूपको देखकर लेरे कार्यको शीघ्र सम्पन्न कर देंगे, इस अभिप्रायसे अपने अगको दिखाना रूपानुपात हैं। सीमा बाहर काम करनेवालोंको लक्ष्य करके लोष्ठ पाषाण आदिको फेंक कर अपना अभिप्राय प्रकट करना पुद्गल क्षेप हैं। दिग्विरतिव्रत सार्वकालिक अर्थात् जीवन भरके लिए होता है और देशविरतिव्रत यथाशक्ति कालके नियमसे अल्पकालके लिए होता है ।
प्रयोजनके विना पाप-उपार्जनके कारणोंको अनर्थदण्ड कहते हैं । वह पाँच प्रकारका हैअपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान और अशुभश्रुति । अमुककी जीत और अमुककी हार कैसे हो, अमुक वध, बन्ध और अंगोंका छेदन कैसे हो, अमुक पुरुषका सर्वधनापहरण कैसे हो, इत्यादि मनसे चिन्तन करना अपध्यान अनर्थदण्ड हैं । पापोपदेश चार प्रकारका हैं-क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेश और आरम्भकोपदेश । इस प्रदेशमें दासी और दास सुलभ है (अल्प
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