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यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन
२१९ मुलोत्तरगुणश्लाध्यैस्तपोभिनिष्ठितस्थितिः । साधुः साधु भवेत्पूज्य: पुण्योपाजितपण्डितैः ।। ७८० ज्ञानकाण्डे क्रियाकाण्डे चातुर्वर्ण्यपुरःसर: । पूरिदेव इवाराध्यः संसाराब्धितरण्डकः ।। ७८१ लोकवित्वकवित्वाद्यैर्वावाग्मित्वकोपाल: । मार्गप्रभावनौद्युक्तः सन्तः पूज्या विशेषतः । ५८२ मान्य ज्ञानं तपोहीनं ज्ञानहीनं तपोऽहितम् । द्वयं यत्र स देव: स्यात् द्विहीनो गणपूरणः ।। ७८३ अहंदूपे नमोऽस्तु स्याद्विरतो विनयक्रिया । अन्योन्यं क्षुल्लके चाहमिच्छाकारवचः सदा ॥ ७८४ अनुवीचीवचो भाष्यं सदा पूज्यादिसंनिधौ। यथेष्टं हसनालापान वर्जयेद् गुरुसंनिधौ ।। ७८५ . मुक्तित्रिप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्त: सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन् शुष्यति ॥७८६ सर्वारम्भप्रवृत्तानां गृहस्थानां धनव्यय । बहुधास्ति ततोऽत्यर्थं न कर्तव्या विचारणा ॥ ७८७ . यथा यथा विशिष्यन्ते तपोज्ञानादिभिर्गुणैः । तथा तथाधिक पूज्या मुनयो गृहमेधिभिः ॥ ७८८ देवाल्लब्धं धनं धन्यैर्वप्तव्यं समयाश्रिते । एको मुनिर्भवेल्लभ्यो न लभ्यो वा यथागमम् ।। ७८९ क्रियाएँ कैसे हो सकती है ; क्योंकि इनमें मुहूर्त देखने के लिए ज्योतिष विद्या और क्रियाकर्म करानेके लिए प्रतिष्ठाशास्त्रके ज्ञाताको आवश्यकता होती है। शायद कहा जाये कि दूसरे लोगोंमें जो जोतिषी या मन्त्रशास्त्री है उनसे काम चला लिया जायेगा। किन्तु इस तरह दूसरोंसे पूछनेसे अपने धर्मकी उन्नति कैसे हो सकती है ।।७७९।। भावार्थ-अपने धर्मको उन्नति तो तभी हो सकती है जब अपने में भी सब आवश्यक बातोंके जाननेवाले हों। तथा अपने महर्त विचारमें भी दूसरोंसे अन्तर है और प्रतिष्ठा आदि विधि तो बिलकुल ही अलग हैं । अत जैन ज्योतिष और जैन मन्त्रशास्त्रके और प्रतिष्ठाशास्त्रके वेत्ताओंका भी सम्मान करना चाहिए, जिससे वे बने रहें और हमारे धर्मकी क्रियाएँ शुद्ध विधिपूर्वक चालू रहें। मूलगुण और उत्तरगुणोंसे युक्त तपस्वी महात्माको साधु कहते है। जो पुण्यको कमानेमें चतुर हैं उन्हें साधुकी भक्तिभावसे पूजा करनी चाहिए ॥७८०।। जो ज्ञानकाण्ड और क्रियाकाण्डमें चतुर्विध संघके मुखिया होते हैं तथा संसाररूपी समुद्रसे पार उतारने में समर्थ हैं उन्हें आचार्य कहते है। उनकी देवके समान आराधना करनी चाहिए।।७८१।। जो लोकज्ञता तथा कवित्व आदिके द्वारा और शास्त्रार्थ तथा वक्तृत्वशक्तिके कौशल-द्वारा जैन धर्मकी प्रभावना करने में सदा संलग्न रहते हैं उन सज्जन पुरुषोंका विशेषरूपसे समादर करना चाहिए ।।७८२ । तपसे हीन ज्ञान भी समादरके योग्य हैं । और ज्ञानसे हीन तप भी पूजनीय है। किन्तु जिसमें ज्ञान और तप दोनों है वह देवता हैं और जिसमें दोनों नहीं हैं वह केवल संघका स्थान भरनेवाला हैं ॥७८३।। जिन-मुद्राके घारक साधुओंको 'नमोऽस्तु' कहकर अभिवादन करना चाहिए । त्यागियोंकी विनय करना चाहिए। और क्षुल्लक त्यागी परस्परमें एक दूसरेका सदा 'इच्छामि' कहकर अभिवादन करते हैं। पूज्य पुरुषोंके सामने सदा शास्त्रानुकूल वचन बोलना चाहिए । तथा गुरुजनों के समीपमें स्वच्छन्दतापूर्वक हँसी-मजाक नहीं करना चाहिए ।।७८४७८५11 केवल आहारदानके लिए साधुओंकी परीक्षा नहीं करनी चाहिए। चाहे वे सज्जन हों या दुर्जन हों । गृहस्थ तो दान देनेसे शुद्ध होता है ।।७८६ । गृहस्थ लोग अनेक आरम्भोंमें फँसे रहते है और उनका धन भी अनेक प्रकारसे खर्च होता हैं । इससे तपस्वियोंको आहारदान देने में ज्यादा सोच-विचार नही करना चाहिए ।।७८७।। मुनिजन जैसे-जैसे तप, ज्ञान आदि गुणोंसे विशिष्ट हों वैसे-वैसे गृहस्थोंको उनका अधिक समादर करना चाहिए ॥७८८। धन भाग्यसे मिलता है, अतः भाग्यशाली पुरुषोंको आगमानुकूल कोई मुनि मिले या न मिले, किन्तु उन्हें अपना धन जैन
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