________________
यशस्तिलचकम्पूगत - उपासकाध्ययन
नीरूपं रूपिताशेषमशब्द शब्दनिष्ठितम् । अस्पर्श योगशंस्पर्शमरसं सरसागमम् ।। ६४९ गुणैः सुरमितात्मानमगन्धगुण संगमम् । व्यतीतेन्द्रियसंबन्धमिन्द्रियार्थावभासकम् ।। ६५० भुवमानन्द सस्यानामम्भस्तृष्णानलाचिषाम् । पवनं दोष रेणूनामग्निमेनोवनी रुहाम् ।। ६५१ यजमानं सदर्थानां व्योमालेपादिसंपदाम् । भानु भव्यारविन्दानां चन्द्रं मोक्षामृतश्रियाम् । ६५२ अतावकगुणं सर्व त्वं सर्वगुणभाजनः । त्वं सृष्टि सर्वकामानां कामसृष्टिनिमीलनः ।। ६५३ खसुप्तदीनिर्वाणेऽप्राकृते वा त्वयि स्फुटम् । खसुप्तदोपनिर्वाणं प्राकृतं स्याज्जगत्त्रयम् ।। ६५४ त्रयीमार्ग त्रयोरूपं त्रयीमुक्त्रं त्रयीपतिम् । त्रयीव्याप्त त्रयीतत्त्वं त्रयीचूडामणिस्थितम् ॥ ६५५ जगतां कौमुदीचन्द्र कामकल्पावनीरुहम् । गुणचिन्तामणिक्षेत्रं कल्याणागमनाकरम् ।। ६५६ प्रणिधानप्रदीपेषु साक्षादिः चकासतम् । ध्यायेज्जगत्त्रयाचर्हिमर्हन्तं सर्वतो मुखम् ।। ६५७ आहुस्तस्मात्परं ब्रह्म तस्मादेन्द्रं पदं करे । इमास्तस्मादयत्नाप्यादचत्राङ्का क्षितिपश्रियः ।। ६५८ यं यमध्यात्ममार्गेषु भावमस्मयंत्सराः । तत्पदाय दधत्यन्तः स स तत्रैव लीयते ।। ।। ६५९ अनुपायानिलोद्भ्रान्त पुंस्तरूणां मनोबलम् : तद्भूमावेव भज्येत लीयमानं चिरादपि ।। ६६० वृक्षोंको जलाने के लिए अग्नि, आकाशकी तरह निर्लिप्त रहना आदि उत्तमोत्तम सम्पत्तियों के दाता, भव्यरूपी कमलोंके विकास के लिए सूर्य, मोज्ञरूपी अमृतके लिए चन्द्रमा, अलौकिक गुशाली, समस्त गुणोंके भाजन, सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाले कामविकारको दूर करनेवले, नैयायिक मत में निर्वाणका स्वरूप आकाशकी तरह माना गया हैं क्योंकि मुक्त अवस्था में आत्माके विशेष गुणों का उच्छेद हो जाता है । सांख्य मत में निर्वाणका स्वरूप सोये हुए मनुष्य - की तरह माना गया है क्योंकि मुक्तावस्थामें ज्ञान नही रहता, बौद्ध मतमें दीपकके निर्वाणकी तरह आत्माका निर्वाण माना गया हैं किन्तु अर्हन्त भगवान् में तीनों प्रकारके निर्वाण अपने प्राकृत
रूप में विद्यमान है। राग-द्वेष और मोहसे रहित होने के कारण वे प्रायः आकाशकी तरह शून्य है, ध्यानमें लीन होने के कारण सुप्त है और दीपकी तरह केवलज्ञानके द्वारा समस्त पदार्थक प्रकाशक है रत्नत्रय जिनका मार्ग हैं, सत्ता, सुख, और चैतन्यसे बिशिष्ट होने के कारण जो त्रयीरूप हैं. राग द्वेष और मोहसे मुक्त है स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और पाताललोकके स्वामी हैं, तीनों लोकोंको जान लेनेके कारण तीनों लोकोंमें व्याप्त है, अथवा सदा रहनेसे तीनों कालों में व्याप्त है, उत्पाद,
य और धोयुक्त है, तीनों लोकोंके शिखरपर विराजमान है तथा जगत् के लिए पूर्णिमासीके चन्द्रमा है, इच्छित वस्तुके लिए कल्पवृक्ष है, गुणरूपी चिन्तामणिके स्थान, कल्याणकी प्राप्तिके लिए खनि, तीनों लोकोंसे पूजनीय और ध्यानरूपी दीपकों के प्रकाश में साक्षात् चमकनेवाले अर्हन्त भगवान्का ध्यान करना चाहिए ।।६४३ - ६५७ ॥ उन अर्हन्तका ध्यान करनेसे मरब्रह्मकी प्राप्ति होती है, उनका ध्यान करनेसे इन्द्रपद तो हाथ में हो समझना चाहिए। तथा चक्रवर्तीकी विभूति भाविना प्रयत्नके प्राप्त हो जाती है ।। ६५८ ।। मान और ईर्षासे रहित पुरुष अध्यात्म मार्ग में अपने अतकरण में अर्हन्तपदकी प्राप्तिके लिए जो-जो भाव रखते है वह वह भाव उसीमें लीन हो जाता है ।। ६५९ ।। पुरुषरूपी वृक्षोंका मनरूपी पत्ता मोक्ष के लिए जो उपायरूप नहीं हैं ऐसे मिथ्यादर्शन आदि रूप वायुसे सदा चंचल बना रहता हैं। किन्तु अर्हन्नरूपी भूमि में पहुँचकर वह मनरूपी पत्ता टूटकर उसीमें चिरकालके लिए लीन हो जाता है । ६६० ।। मावार्थ- पुरुष एक वृक्ष हैं और मन उसका पत्ता है । जैसे वायुसे पत्ता सदा हिलता रहता हैं वैसे ही नाना प्रकारके सांसारिक धन्धों में
www.jainelibrary.org
Jain Education International
२०५
For Private & Personal Use Only