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यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन
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इत्यवधताभिधानं च न घटेत । अनेकजन्मसन्ततेर्यावदद्याक्षयः पुमान् । यद्यसो मुक्त्यवस्थायां कुतः क्षीयेत हेतुत: ॥ ३५ बाह्ये ग्राह्ये मलापायात्सत्यस्वप्न इवात्मनः । तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽस्मिन्नवस्थानममानकम् ॥ ३६ न चायं सत्यस्वप्नोऽप्रसिद्धः स्वप्नाध्यायेऽतीव सुप्रसिद्धत्वात् । तथा हि"यस्तु पश्यति रात्र्यन्ते राजानं कुञ्जरं हयम् । सुवर्ण वृषभं गां च कुटुम्बं तस्य वर्धते" ॥ ३७ यत्र नेत्रादिकं नास्ति न तत्र मतिरात्मनि । तन्न युक्तमिदं यस्मात्स्वप्नमन्धोऽपि वीक्षते ।। ३८ जैमिन्यादेन रत्वेऽपि प्रकृष्येत मतियदि । पराकाष्ठाप्यतस्तस्या: क्वचित्ख परिमाणवत् ॥ ३९ सदाशिव ईश्वर आदिक संसारी है या मुक्त? यदि संसारी है तो वे आप्त नहीं हो सकते । यदि मुक्त हैं तो 'क्लेश,कर्म, कर्मफलका उपभोग और उसके अनुरूप संस्कारोंसे रहित पुरुप विशेष ईश्वर हैं। उस ईश्वरमें सर्वज्ञताका जो बीज है वह अपनी चरम सीमाको प्राप्त है अर्थात् वह पूर्णज्ञानी है। पतञ्जलिका यह कथन, और 'हे भगवन्! आपमें अविनाशी ऐश्वर्य है, स्वाभाविक विरागता है, स्वाभाविक सन्तोष हैं, स्वभावसे ही आप इन्द्रियजयी है । आपमें ही अविनाशी सुख, निरावरण शक्ति और सब विषयोंका ज्ञान है ।।३४॥ अवधूताचार्यका यह कथन घटित नहीं हो सकता है। (इस प्रकार कणाद मतके अनुयायियोंकी आलोचना करके आचार्य बौद्धोंकी आलोचना करते है-) १२. यदि पुरुष अनेक जन्म धारण करनेपर भी आज तक अक्षय है, उसका विनाश नहीं हुआ तो मुक्ति प्राप्त होनेपर उसका विनाश किस कारणसे हो जाता है? ॥३५।। (अब आचार्य सांख्यमतकी आलोचना करते है-) १३. जैसे वात, पित्त आदिका प्रकोप न रहनेपर आत्माको सच्चा स्वप्न दिखाई देता हैं वैसे ही ज्ञानावरण कर्म रूपी मलके नष्ट हो जानेपर आत्मा बाह्य पदार्थोको जानता हैं । अतः मुक्त हो जानेपर आत्मा अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता हैं और बाह्य पदार्थोको नहीं जानता यह कहना अप्रमाण है । यह भी अर्थ हो सकता है कि मलके नष्ट हो जाने पर आत्मा बाह्य पदार्थोको जानता है। और तब अपने इस स्वरूप में अनन्त काल तक अवस्थित रहता है ॥३६॥ यदि कहा जाय कि सच्चे स्वप्न होते ही नहीं है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है,क्योंकि 'स्वप्नाध्याय'मे सच्चे स्यप्न बतलाये हैं। जैसा कि उसमें लिखा है-'जो रात्रिके पिछले प्रहरमें राजा, हाथी, घोडा, सोना, बैल और गायको देखता है उसका कुटुम्ब बढता है ।।३७।। जहाँ नेत्रादिक इन्द्रियाँ नहीं होतीं, वहाँ आत्मामें ज्ञान भी नहीं होता, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अन्धे मनुष्यको भी स्वप्न दिखाई देता है ॥३८॥ भावार्थ-सांख्य मुक्तात्मामें ज्ञान नहीं मानता,क्योंकि वहाँ इन्द्रियाँ नहीं होतीं। उसकी इस मान्यताका खण्डन करते हुए ग्रन्थकारका कहना है कि इन्द्रियोंके होनेपर ही ज्ञान हो और उनके नहीं होनेपर न हो ऐसा कोई नियम नहीं है। इन्द्रियोंके अभावमें भी ज्ञान होता देखा जाता है। स्वप्न दशामें इन्द्रियाँ काम नहीं करतीं फिर भी ज्ञान होता है और वह सच्चा निकलता है। अतः इन्द्रियोंके अभावमें भी मुक्तात्माको स्वाभाविक ज्ञान रहता ही है। (जैमिनिके मतके अनुयायी मीमांसक कहे जाते है । मीमांसक लोक सर्वज्ञको नहीं मानते। वे वेदको ही प्रमाण मानते है। उनके मतसे वेद ही भूत और भविष्यत्का भी ज्ञान करा सकता है। उनका अहना है कि मनुष्यकी बुद्धि कितना भी विकास करे किन्तु उसमें अतीन्द्रिय पदार्थोको जाननेकी शक्ति कभी नहीं आ सकती। मनुष्य यदि अतीन्द्रिय पदार्थोको जान सकता है तो केवल वेदके द्वारा ही जान सकता है। इसकी आलोचना करते हुए आचार्य कहते हैं-) आपके आप्त
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