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श्रावकाचार-संग्रह
भाप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं कारणद्वयात् । मूढाद्यपोढमष्टाङ्गं सम्यक्त्वं प्रशमादिभाक् ।। ४८ ॥ सर्वज्ञं सर्वलोकेशं सर्वदोषविजितम् । सर्वसत्त्वहितं प्राहुराप्तमाप्तमतोचिताः ।। ४९।। ज्ञानवान्मग्यते कश्चित्तदुक्तप्रतित्तये। अज्ञोददेशकरणे विप्रलम्भनङ्किभिः ।। ५०॥ यस्तत्त्वदेशनादुःखवाधेरुद्धरते जगत् । कथं न सर्वलोकेश: प्रव्हीभूतजगत्त्रयः ।। ५१ ।। क्षुत्पिपासाभयं द्वेषश्चिन्तनं मूढतागमः । रागो जरा रुजा मृत्युः क्रोधः खेदो मदो रतिः ॥५॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश भ्रवाः । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ।। ५३ एमिर्दोविर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः । स एव हेतुः सूक्तीनां केवलज्ञानलोचन: ।। ५४ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यान्तकारणं नास्ति ॥ ५५ उच्चावचप्रसूतीनां सत्त्वानां सदृशाकृति । य आदर्श इवाभाति स एव जगतां पतिः ।। ५६ यस्यात्मनि भुते तत्त्वे चारित्रे मुक्तिकारणे । एकवाक्यतया वृत्तिराप्तः सोऽनुमतः सताम् ।। ५७ अत्यक्षेप्यागमात्पुंसि विशिष्टत्वं प्रतीयते । उद्यानमध्यवृत्तीनां ध्वनेरिव नगौकसाम् ।। ५८ गण सम्यक्त्वको ही समस्त परलौकिक अभ्युन्नतिका अथवा मोक्षका प्रथम कारण कहते है । उस सम्यक्त्वका लक्षण इस प्रकार हैं-अन्तरंग और बहिरंग कारणोंके मिलनेपर आप्त (देव), शास्त्र और पदार्थोका तीन मूढता रहित,आठ अङग सहित जो श्रद्धान होता हैं,उसे सम्वग्दर्शन कहते हैं, यह सम्यग्दर्शन प्रशम संवेग आदि गुणवाला होता हैं॥४८॥ जो सर्वज्ञ है,समस्त लोकोंका स्वामी हैं सब दोषोंसे रहित है और सब जीवोंका हितू हैं,उसे आप्त कहते हैं । चूंकि यदि अज्ञ मनुष्य उपदेश दे तो उससे ठगाये जानेकी शंका रहती हैं, इसलिए मनुष्य उपदेशके लिए ज्ञानी पुरुषकी ही खोज करते है, क्योंकि उसके द्वारा कही गई बातोंपर विश्वास करनेके लिए किसी ज्ञानीको ही खोजा जाता है ॥४९-५०।। (ऊपर आप्तको समस्त लोकोंका स्वामी बतलाया हैं। किन्तु जैनधर्ममें आप्तको न तो ईश्वरकी तरह जगत्का कर्ता हर्ता माना गया हैं और न उसे सुख-दुःखकादेनेवाला ही माना गया है । ऐसी स्थितिमें यह शङ्का होना स्वाभाविक हैं कि आप्तको सब लोगोंका स्वामी क्यों बतलाया? इसी बातको मनमें रखकर ग्रन्थकार कहते है-:) जो तत्त्वोंका उपदेश देकर दुःखो। के समद्रसे जगतका उद्धार करता है,अत एव कृतज्ञतावश तीनों लोक जिसके चरणोंमें नत हो जाते है. वह सर्वलोकोंका स्वामी क्यों नहीं है? ॥५१॥ भूख, प्यास, भय, द्वेष, चिन्ता, मोह, राग, बढापा, रोग, मृत्यु, क्रोध, खेद, मद, रति,आश्चर्य,जन्म,निद्रा और विषाद ये अठारह दोष संसारके सभी प्राणियों में पाये जाते है । जो इन दोषोंसे रहित हैं वही आप्त हैं। उसकी आँखे केवल ज्ञान है उसीके द्वारा वह चरावर विश्वको जानता है तथा वही सदुपदेशका दाता है। वह जो कुछ कहता है सत्य कहता है,क्योंकि रागसे,द्वेषसे या मोहसे झूठ बोला जाता है । किन्तु जिसमें ये तीनों दोष नहीं हैं उसके झूठ बोलनेका कोई कारण नहीं हैं ।।५२-५५।। विविध प्रकार के प्राणियोंकी आकृति समान होती है। किन्तु उनमेंसे जिसका आत्मा दर्पणके समान स्वच्छ हो वही जगत्का स्वामी है ॥५६॥ जिसकी आत्मामें, श्रुतिमें, तत्त्वमें और मुक्तिके कारणभूत चारित्रमें एकवाक्यता पाई जाती है अर्थात जो जैसा कहता है वैसा ही स्वयं आचरण करता है और वैसी ही तत्त्वव्यवस्था भी उपलब्ध होती है,उसे सज्जन पुरुष आप्त मानते है ।।५७।। (इस पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि जिन पुरुषोंको आप्त माना जाता हैं वे तो गुजर चुके । हम कैसे जाने कि आप्त थे? इसका उत्तर देते हुए ग्रन्थकार कहते हैं-) परोक्ष भी पुरुषकी विशिष्टता उसके द्वारा उपदिष्ट आगमसे जानी
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