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श्रावकाचार-संग्रह
महेश्वरस्योलूकसायुज्यसरस्येदं वचः संगच्छेत्-‘ब्रह्मतुला नामेदं दिवौकसां दिव्यमद्भुतं ज्ञानं प्रादुर्भूतमिह त्वयि तद्वत्संविधत्स्व विप्रेभ्यः । उपाये सत्युपेयस्य प्राप्ते: का प्रतिबन्धिता । पातालस्थं जलं यन्त्रात्करस्थं क्रियते यतः ।। ८१ अश्मा हेम जलं मुक्ता द्रुमो वन्हिः क्षितिर्मणिः । तत्तद्धतुतया भावा भवन्स्यद्भतसंपदः ।। ८२ सर्गावस्थितिसंहार ग्रीष्मवर्षातुषारवत् । अनाद्यनन्तभावोऽयमाप्तश्रुतसमाश्रयः ।। ८३ नियतं न बहुत्वं चेत्कथमेते तथाविधाः । तिथिताराग्रहाम्भोधिभूभृत्प्रभृतयो मता: ।। ८४ अनयव दिशा चिन्त्यं सांख्यशाक्यादिशासनम् । तत्त्वागमाप्तरूपाण। नानात्वस्याविशेषतः ।। ८५ जैनमेकं मतं मुक्त्वा द्वैताद्वैतसमाश्रयो । मा! समाश्रिताः सर्वे सर्वाभ्युपगमागमा: ।।८६।। वामदक्षिणमार्गस्थो मन्त्रीतरसमाश्रयः । कर्मज्ञानगतो ज्ञेयः शभुशाक्यद्विजागमः ।। ८७ ।। हो सकता हैं-'हे कणाद! तुझे देवोंके ब्रह्मतुला नामके दिव्य ज्ञानकी प्राप्ति हुई है इसे विप्रोंको प्रदान कर ।' साधन सामग्रीके मिलनेपर पाने योग्य वस्तुकी प्राप्तिमें रुकावट ही क्या हो सकती हैं? क्योंकि यंत्रके द्वारा पाताल में भी स्थित जल प्राप्त कर लिया जाता है ॥८१॥पत्थरसे सोना पैदा होता है । जलसे मोती बनता हैं । वृक्षसे आग पैदा होती हैं और पृथ्वीसे मणि पैदा होती हैं। इस प्रकार अपने-अपने कारणोंसे अद्भुत सम्पदावाले पदार्थ उत्पन्न होते हैं। जैसे उत्पत्ति,स्थिति और विनाशकी परम्परा अनादि-अनन्त है, या ग्रीष्म ऋतु,वर्षा ऋतु और शीत ऋतुकी परम्परा अनादि अनन्त है, वैसे ही आप्त और श्रुतकी परम्परा भी प्रवाह रूपसे चली आती है,न उसका आदि हैं और न अन्त । आप्तसे श्रुत उत्पन्न होता हैं और श्रुतसे आप्त बनता हैं ।।८२-८३।। (शैव मतवादीके यह आपत्ति की थी कि आप्त बहुतसे नहीं हो सकते और यदि हों भी तो चौवीसका नियम कैसे हो सकता हैं? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं-)यदि वस्तुओंका बहुत्व नियत न हो तो तिथि. तारा ग्रह, समद्र, पहाड आदि नियत क्यों माने गये हैं? अर्थात् जैसे ये बहुत हैं फिर भी इनकी संख्या नियत हैं उसी तरह जैन तीर्थङ्करोंकी भी चौबोस संख्या नियत हैं ।। ८४।। इसी प्रकारसे सांख्य और बौद्ध आदिके मतोंका भी विचार कर लेना चाहिये । क्योंकि उनमें भी तत्त्व,आगम और आप्तके रवरूपोंमें भेद पाया जाता है ।। ८५। एक जैनमतको छोडकर शेष सभी मतवालोने या तो द्रुतमतको अपनाया है या अद्वैत मतको अपनाया है। और उनके सभी आगम सभी मतों के स्वीकार करनेवाले है,अर्थात् किसी एक निश्चित सिद्धान्तके प्रतिपादक नहीं हैं ।।८६।। शैवमत, बौद्धमत और ब्राह्मणमत वाममार्गी और दक्षिणमार्गी हैं,मंत्र तंत्र प्रधान भी है, तथा उसको न मानने वाले भी है और कर्मकाण्डी तथा ज्ञानकाण्डी है ॥८७॥ भावार्थ-शवमत ब्राह्मणमत और बौद्धमतमें उत्तर कालमें वाममार्ग भी उत्पन्न हो गया था,और वह वाममार्ग मंत्र तंत्र प्रधान था तथा उसमें क्रियाकाण्डका ही प्राधान्य था । दक्षिण मागं न तो मत्र तत्र प्रधान था और न क्रियाकाण्डको ही विशेष महत्त्व देता था । शैवमतका तो वाममार्ग प्रसिद्ध हैं। बौद्धमतके महायान सम्प्रदायमेसे तांत्रिक वाममार्गका उदय हुआ था। वैसे बुद्धके पश्चात् बौद्धमत हीनयान और महायान सम्प्रदायोंम विभाजित हो गया था। इसीप्रकार वैदिक ब्राह्मणमत भी पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसाके भेदसे दो रूप हो गया था। पूर्व मीमांसा यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड प्रधान हैं, और उत्तर मीमांसा,जिसे बेदान्त भी करते हैं, ज्ञान प्रधान है । (अब ग्रन्थकार मनुस्मृतिके दो पद्योंको देकर उसकी आलोचना करते है-)
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