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यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन
तथाप्तेनैकेन भवितव्यम् ! ह्याप्तानामितरप्राणिवद् गणः समस्ति संभवें वा चतुविशतिरिति नियम: कौतस्कुत इति वन्ध्यास्तनंधय धैर्य व्यावर्णनमुदीर्णमोहार्णवविलयनं च परेषाम् ।
यतः
वक्ता नैव सदाशिवो विकरणस्तस्मात्परो रागवान् द्वै विध्यादपरं तृतीयमिति चेत्तत्कस्य हेतोरभूत् । शक्त्या चेत्परकीयया कथमसौ तद्वान संबंधतः संबंधोऽपिन जाघटीति भवतां शास्त्रं निरालम्बनम् ॥ ७८ 'संबंधो हि सदाशिवस्य शक्त्या सह न भिन्नस्य संयोगः शक्तेरद्रव्यत्वात्, 'द्रव्ययोरेव संयोगः' इति योगसिद्धान्तः । 'समवाय लक्षणोऽपि न संबंधः शक्तेः पृथक्सद्धत्वात्, 'अघुत सिद्धानां गुणगुण्यादीनां समवायसंबंध :' इति वैशेषिकमं तिह्यम् । तत्त्वभावनयोद्भूतं जन्मान्तरसमुत्थया । हिताहितविवेकाय यस्य ज्ञानत्रयं परम् । ७९ दृष्टादृष्टमवत्यथ रूपवन्तमथावधेः । श्रुतेः श्रुतिसमाश्रयं क्वासौ परमपेक्षताम् ॥ ८०
न चैतदसार्वत्रिकम् । कथमन्यथा स्वत एव संजातषट्पदार्थावसायप्रसरे कणचरे वाराणस्यां सद्भाव भी चाहते हैं तो तत्त्वके उपदेष्टा सदाशिव पार्वतीपतिको ही मानना चाहिये । पतञ्जलि ऋषि भी कहा हैं - 'वह पूर्वजों का भी गुरु हैं, क्योंकि कालके द्वारा उनका नाश नहीं होता । और भी कहा है- "अशरीरी, शान्त और परम कारण शिवसे परमदुर्लभ नादरूप शास्त्रकी उत्पत्ति हुई ॥ ७ ॥ तथा आप्त एक ही होना चाहिये । अन्य प्राणियों के समूहकी तरह आप्तोंका समूह तो होता नहीं हैं | और यदि हो भी तो चौबीस संख्याका नियम कहाँसे आया?' इस प्रकार दूसरे मतवालोंका उक्त कथन वन्ध्याके पुत्रके धैर्यको प्रशंसा करनेके तुल्य व्यर्थ है, वे महान् मोहके समुद्र में डूबे हुए है, क्योंकि - सदाशिव अशरीरी है अतः वह वक्ता नहीं हो सकता। और शिव यद्यपि सशरीर है मगर वह रागी है - पार्वतीसे साथ रहते है, अतः उनका उपदेश प्रमाण नहीं माना जा सकता । यदि इन दोनों सिवाय किसी तीसरेको वक्ता मानते हो तो वह तीसरा किससे हुआ । यदि कहोगे
शक्ति हुआ, तो शक्ति तो भिन्न हैं, भिन्न शक्तिसे वह शक्तिवान कैसे हो सकता है, क्योंकि उन aria कोई सम्बन्ध नहीं हैं। यदि सम्बन्ध मानोगे तो विचार करनेपर उनका कोई सम्बन्ध भी नहीं बनता हैं, अतः आपका शास्त्र निराधार ठहरता है क्योंकि उसका कोई वक्ता सिद्ध नहीं होता ||७८ || सदाशिवका शक्तिके साथ संयोग सम्बन्ध तो नहीं सकता, क्योंकि शक्ति द्रव्य नहीं हैं और 'संयोग सम्बन्ध द्रव्योंका ही होता हैं' ऐसा योगोंका सिद्धान्त हैं । तथा समवाय सम्बन्ध भी नहीं हो सकता, क्योंकि शक्ति तो शिवसे पृथक् सिद्ध है- जुदी है और 'जो पृथक् सिद्ध नही है ऐसे गुणगुणी वगैरह ही समवाय सम्बन्ध होता है' ऐसा वैशेषिकों का मत हैं । ( इस प्रकार सदाशिववादियों के शास्त्रको निराधार बतलाकर ग्रन्थकार, मनुष्यको आप्त मानने में जो आपत्ति की गई हैं, उनका निराकरण करते है - ) पूर्वजन्म में उत्पन्न हुई तत्त्व भावनासे, हित और अहितकी पहचान करनेके लिए उत्पन्न हुए जिसके तीन ज्ञान-मति, श्रुत और अवधि दृष्ट और अदृष्ट अर्थको जानते हैं, उनमें भी अवधिज्ञान केवल रूपी पदार्थोंको ही जानता हैं और श्रुतज्ञान शास्त्रमें वर्णित विषयोंको जाता हैं । ऐसी अवस्थामें इष्ट तत्त्वको जानने के लिए उसे दूसरेकी अपेक्षा ही क्या रहती हैं? ॥७१-८०।। ( आगे कहते है - ) और यह बात कि तीर्थङ्कर स्वयं ही इष्ट तत्त्वको जान लेते हैं, ऐसी नहीं हैं जिसे सब न मानते हों। यदि ऐसा नहीं हैं तो स्वतः ही छ पदार्थोका ज्ञान होनेपर कणाद ऋषिके प्रति वाराणसी नगरीमें उलूकका अवतार लेनेवाले महेश्वरका यह कथन कैसे संगत
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