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यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन
१५३ विद्याविभूतिरूपाद्याः सम्यक्त्वरहिते कुतः । नहि बीजव्यपायेऽस्ति सस्यसम्पत्तिरङ्गिनि ।। २२४ चक्रिश्री: संश्रयोत्कण्ठा नाक धीदर्शनोत्सुका । तस्य दूरे न मुक्तिश्रीनिर्दोषं यस्य दर्शनम् ॥ २२५ मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषा: पञ्चविंशतिः ।। २२६ निश्चयोचितचारित्र: सुदृष्टिस्तत्त्वकोविदः । अवतस्थोऽपि मुक्तिस्थो न व्रतस्थोऽप्यदर्शनः ।। २२७ बहिःक्रिया बहिष्कर्मकारणं केवलं भवेत् । रत्नत्रयसमृद्धः स्यादात्मा रत्नत्रयात्मकः ।। २२८ विशुद्धवस्तुधीदृष्टिर्बोधः साकारगोचरः । अप्रसङ्गस्तयोर्वृत्तं भूतार्थनयवादिनाम् ॥ २२९ अक्षाज्ज्ञानं रुचिर्मोहाद्देहान् वृत्त च नास्ति यत्। आत्मन्यस्मिछि वीभूते तस्मादात्मैव तत्त्रयम्।।२३० नात्मा कर्म न कर्मात्मा तयोर्यन्महदन्तरम् । तदात्मैव तदा सत्ता वात्मा व्योमेव केवलम् ।। २३१ क्लेशाय कारणं कर्म विशद्धे स्वयमात्मनि । नोष्णमम्बु स्वत: किन्तु तदोषण्यं वन्हिसंश्रयम् ।। २३२ आत्मा कर्ता स्वपर्याये कर्म कर्त स्वपर्यये। मिथो न जातु कर्तत्वमपरत्रोपचारतः ।। २३३ स्वतः सर्वस्वभावेंषु सक्रियं सचराचरम् । निमित्तमात्रमन्यत्तु वार्गतेरिव सारिणिः ।। २३४
लिए प्राणीको चाहिए कि सम्यग्दर्शनके अंगोंको प्राप्त करके निःसंग - निर्ग्रन्थ दिगम्बर हो जानेकी कामना करे ।।२२।। सम्यक्त्वसे रहित प्राणीमें सम्यग्ज्ञान की विभूति आदिक कैसे हो सकते हैं? बीजके अभावमें धान्य सम्पत्ति नहीं होती। जिसका सम्यग्दर्शन निर्दोष हैं, चक्रवर्तीकी विभूति उसका आलिंगन करने के लिए उत्कण्ठित रहती है और देवोंकी विभूति उसके दर्शनके लिए उत्सुक रहती हैं। अधिक क्य!,मोक्षलक्ष्मी भी उससे दूर नहीं है ।।२२४-२२५।। तीन मूढताएँ, आठ मद' छह अनायतन और आठ शंका आदिक, ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष है ।।२२६॥ स्वरूपाचरण चारित्रका धारक और तत्त्वोंका ज्ञाता सम्यग्दष्टि व्रतोंका पालन नहीं हए भी मुक्तिके मार्गमें स्थित हैं। किन्त ब्रतोंका पालन करते हए भी जो सम्यग्दर्शनसे रहित है वह मक्तिके मार्गमें स्थित नहीं हैं । २२७।। बाह्य क्रिया तो केवल बाह्य कर्मकी ही कारण होती हैं। किन्तु रत्नत्रय रूपी समृद्धिका कारण तो सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमय आत्मा ही हैं।।२२८।। निश्चयनयवादियोंके मतमें अर्थात् निश्चयनयकी दृष्टि में विशुद्ध आत्मस्वरूप में रुचि होना निश्चय सम्यक्त्व है । विशुद्ध आत्माको साकार रूपसे जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके विषयों में भेद-बुद्धि न करके एकरूप होना,अर्थात् आत्मस्वरूपमें लीन होना निश्चयचारित्र हैं ।। २२९।। इस आत्माके मुक्त हो जानेपर न तो इन्द्रियोंसे ज्ञान होता हैं,न मोहसे जन्य रुचि होती है और न शारीरिक आचरण होता है । अत: ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों आत्मस्वरूप ही हैं ।। २३०।। (अब आत्मा और कर्मका सम्बन्ध कैसा हैं यह स्पष्ट करते है-) न आत्मा कर्म है और न कर्म आत्मा हैं; क्योंकि दोनोंमें बडा भारी अन्तर हैं। अत: मुक्तावस्थामें केवल आत्मा ही रहता है और वह शुद्ध आकाश की तरह है ।।२३१॥ आत्मा स्वयं विशुद्ध हैं और कर्म उसके क्लेशका कारण हैं । जैसे जल स्वयं उष्ण नहीं होता, किन्तु आगके सम्बन्धसे उसमें उष्णता आ जाती है ।।२३२ । आत्मा अपनी पर्यायका कर्ता हैं और कर्म अपनी पर्यायका कर्ता हैं। उपचारके सिवाय दोनों परस्परमें एक दूसरेके कती नहीं हैं। अर्थात उपचारसे आत्माको कर्मका और कर्मको आत्माका कता कहा जाता है परन्तु वास्तवमें दोनों अपनी-अपनी पर्यायोंक ही कर्ता है। समस्त चराचर विश्व स्वयं अपने स्वभावका कर्ता है, दूसरे तो उसमें निमित्तमात्र है। जैसे
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