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श्रावकाचार - संग्रह
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ततः कृतोपवासस्य पूजा विधिपुरःसरः । स्थानलाभो भवेदस्य तत्रायमुचितो विधिः ।। ३७ जिनालये शुचौ रङ्गे पद्ममष्टदलं लिखेत् । विलिखेद् वा जिनास्थानमण्डलं समवृत्तकम् ।। ३८ इलक्षण पिष्टचूर्णेन सलिलालोडितेन वा । वर्तनं मण्डलस्येष्टं चन्दनाद्रिद्रवेण वा ।। ३९ तस्मिन्नष्टदले पद्मे जेने वाऽऽस्थानमण्डले । विधिना लिखिते तञ्ज्ञविष्वग्विरचितार्चने ॥ ४० जिनार्चाभिमुखं सूरि : विधिनैनं निवेशयेत् । तवोपासकदीक्षेयमिति मूनि मुहुः स्पृशन् ।। ४१ पञ्चमुष्टिविधानेन स्पृष्ट्वैनमस्तकम् । पूतोऽसि दीक्षयेत्युक्त्वा सिद्धशेषा च लम्म्भयेत् ॥ ४२ ततः पञ्चनमस्कारपदान्यस्मा उपदिशेत् । मन्त्रोऽयमखिलात् पापात्त्वां पुनीतादितीरयन् ॥ ४३ कृत्वा विधिमिमं पश्चात् पाराणाय विसर्जयेत् । गुरोरनुग्रहात् सोऽपि सम्प्रीतः स्वगृहं व्रजेत् ॥४४ इति स्थानलाभः | निर्दिष्टस्थानलाभस्य पुनरस्य गणग्रहः । स्यान्मिथ्यादेवताः स्वस्माद् विनिःसारयतो गृहात् ॥ ४५ इयन्तं कालमज्ञानात् पूजिता: स्थ कृतादरम् । पूज्यास्त्विदानीमस्माभिः अस्मत्समयदेवताः ॥ ४६ ततोऽपमृषितेनालन्यत्र स्वरमास्यताम् । इति प्रकाशमेवैतान् नीत्वाऽन्यत्र ववचित्त्यजेत् ।। ४७ गणग्रहः स एष स्यात् प्राक्तनं देवतागणम् । विसृज्याचंयतः शान्ताः देवताः समयोचिताः ॥ ४८ इति ग्रहणक्रिया | पूजाराध्याख्ययाख्याता क्रियाऽस्य स्यन्दतः परा पूजोपवाससम्पत्त्या श्रृष्वतोऽङ्गार्थसङ्ग्रहम् ।। ४९ इति पूजाराध्य क्रिया ।
तत्पश्चात् जिसने उपवास किया है, ऐसे उस भव्य पुरुषके पूजाको विधि पूर्वक स्थानलाभ नामकी क्रिया होती है । इसमें यह वक्ष्यमाण विधि करना उचित है ||३७|| जिनालय में किसी शुद्ध स्थानपर अष्टदलवाले कमलको लिखे, अथवा गोल आकारवाले समवरणके मंडलकी रचना करे ।। ३८ ।। इस कमलकी, अथवा समवसरण - मंडलकी रचना जलमें घोले हुए बारीक पिसे चूर्ण से अथवा घिसे हुए चन्दन- केशर आदिके रसके करना चाहिए || ३९ || मंडल - रचनाके जानकर लोगोंके द्वारा लिखित उस अष्टदल कमलकी, अथवा जैन आस्थामंडल ( समवसरण ) की विधिपूर्वक पूजन हो जानेपर आचार्य उस भव्य पुरुषको जिनप्रतिमाके सन्मुख बिठावे और उसके मस्तकका बार- बारस्पर्श करता हुआ उससे कहे कि यह तेरी श्रावकदीक्षा हैं ||४०-४१ ॥ पुनः पंचमुष्टि विधानसे उनके मस्तकका स्पर्शकर और ‘तू इस दीक्षासे पवित्र हुआ' इसप्रकार कहकर पूजनसे शेष रहे अक्षत उसके मस्तकपर डा ||४२॥ तदनन्तर 'यह मन्त्र तुझे समस्त पांपोंसे पवित्र करें' ऐसा कहकर उसे पञ्चनमस्कार मन्त्रका उपदेश देवे ॥४३॥ | यह सब विधि करके आचार्य उसे पारणाके लिए विदा करे और वह भव्य भी उसके अनुग्रहसे अति प्रसन्न होता हुआ अपने घरको जावे ॥ ४४ ॥ | यह तीसरी स्थानलाभ क्रिया है । जिसकी स्थानलाभ क्रिया अभी कही गई है, उस भव्य के मिथ्या देवताओं को अपने घरसे बाहर करते समय गणग्रह क्रिया होती हैं ॥४५॥ | उस समय वह अभी तक घरमें स्थापित उन देवताओंसे कहे कि "मैंने इतने कालतक अज्ञानसे आदरपूर्वक तुम्हारी पूजा की; अब हमें हमारे ही मतके देवता पूज्य हैं, इसलिए क्रोध न करें और अपनी इच्छानुसार अन्यत्र रहें " इसप्रकार स्पष्ट कहकर और उन देवताओंको ले जाकर किसी अन्य स्थानपर छोड जावे ।।४६-४७॥ इसप्रकार पहलेके देवताओंका विसर्जनकर अपने मतके शान्त देवताओंकी पूजा करनेवाले उन भव्यकी यह गणग्रह किया हैं ॥१४८॥ | यह चौथी गणग्रह किया हैं । तदनन्तर जिनदेवकी पूजन करते और यथा
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