________________
महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन
सम्यग्दृष्टिपदं चास्माद् बोध्यन्तं द्विरुदीरयेत् । तथा कल्पपति चापि दिव्यमूति च सम्पठेत् ।।५४ द्विर्वाच्यं वज्रनामेति ततः स्वाहेति संहरेत् । पूर्ववत् काम्यमन्त्रोऽपि पाठयोऽस्यान्ते त्रिभिः पदैः।।५५ चणि:- सत्यजाताय स्वाहा, अहज्जाताय स्वाहा, दिव्यजाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा
सौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये स्वाहा, अनुचराय स्वाहा परम्परेंद्रीय स्वाहा, अहमिन्द्राय स्वाहा,परमार्हताय स्वाहा अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन वाहा । सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु,
अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरण भवतुसुरेन्द्रमन्त्र एष: स्यात् सुरेन्द्रस्यानुतर्पणम् । मन्त्रं परमराजादि वक्ष्यामीतो यथाश्रुतम् ।। ५६ प्रागत्र सत्यजाताय स्वाहेत्येतत् पदं पठेत् । ततः स्यादहज्जाताय स्वाहेत्येतत्परं पदम् ॥ ५७ ततश्चानुपमेन्द्राय स्वाहेत्येतत्पद मतम् । विजयाादिजाताय पदं स्वाहान्तमन्वतः ।। ५८ ततोऽपि नेमिनाथाय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् । तत: परमराजाय स्वाहेत्येतदुदाहरेत् ।। ५९ परमाहताय स्वाहा पदस्मात्परं पठेत् । स्वाहान्तमनुपायोक्तिरतो वाच्या द्विजन्मभिः । ६० सम्यग्दृष्टिपदं चास्माद् बोध्यन्तं द्विरुदीरयेत् उग्रतेजः पदं चैव दिशाजयपदं तथा ।। ६१ नेम्यादिविजयं चैव कुर्यात स्वाहापदोत्तरम् । काम्यमन्त्रं च तं ब्रूयात् प्राग्वदन्ते पदैस्त्रिभिः ।।६२
चणिः- सत्यजाताय स्वाहा, अहंज्जाताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय हा विजयाय॑जाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, परमराजाय स्वाहा, परमाहताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा,सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेज: उग्रतेज: दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा,सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । पद बोले ॥५३॥ तत्पश्चात् सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद दो बार बोले,तथा कल्पपति और दिव्यमूर्ति पद भी सम्बोधनान्त दो-दो बार बोले । पुनः वज्रनामन् शब्द भो दो बार उच्चारणकरे । यथा-'सम्यग्दृष्टै सम्यग्दृष्टे, कल्पपते कल्पपते, दिव्यमूर्ते, दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन् स्वाहा' (हे सम्यग्दृष्टि, हे स्वर्गाधिपति, हे दिव्यमत्ति,हे वज्रनामन्, मैं तेरे लिए हव्य समर्पण करता हूँ) इस मंत्रके पश्चात् अन्तमें तीन पदों के द्वारा काम्यमन्त्र पढना चाहिए ।।५४-५५।' इन सर्वमन्त्रों का संग्रह मूलमें दिया हुआ हैं । यह सुरेन्द्रको तृप्त करनेवाला सुरेन्द्रमन्त्र है । अब इससे आगे शास्त्रोंके अनुसार परमराजादिमन्त्र कहते हैं ।।५६।। इन मन्त्रोंमें सर्वप्रथम 'सत्यजाताय स्वाहा' (सत्य जन्मके धारण करनेवालेको हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद पढे । पुनः ‘अर्हज्जाताय स्वाहा (अरहन्तपदके योग्य जन्म धारण करनेवालेको हव्य समर्पण करता हूँ । यद पद पढे ॥ ५७ ॥ तत्पश्चात् 'अनुपमेन्द्राय स्वाहा' (अनुपम इन्द्रके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यद पद कहे। पुनः 'विजया~जाताय स्वाहा' (विजययुक्त पूज्य जन्मवाले को हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद उच्चारण करे ॥५.८।। तदनन्तर 'नेमिनाथाय · वाहा' (नेमिनाथके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद पढे । पुन: 'परमजाताय स्वाहा' (सर्वोत्तम जन्म-धारकके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद बोले ॥५९॥ इसके पश्चात् 'परमार्हताय स्वाहा (परम आर्हताके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद पढे । इसके पश्चात् अनुपमाय स्वाहा' (उपमारहित देव के लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद द्विजोंको बोलना चाहिए ॥६०॥ तदनन्तर सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद दो बार बोले; तथा उग्रतेजः पद,दिशांजय पद और नेमि विजय पद दो-दो बार बोलकर अन्तमें स्वाहा पदका उच्चारण करे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org