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श्रावकाचार-संग्रह
धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् ।
इति दुविवेककलितां धिषणां प्राप्य न देहिनो हिस्याः ।। ८०
पूज्यनिमित्तं घाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति । इति संप्रधार्य कार्य न । तिथये सत्व संज्ञपनम् ।। ८१ बहुत्ववातजनितादशनाद्व र मेकसत्वघातोत्यम् । इत्याकलय्य कार्य न महासत्त्वस्य हिंसनं जातु ॥ ८२ रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति मत्त्वा कर्त्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम् ॥ ८३ बहुसवघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरुपायम् ।
इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः शर रिणो हिंस्राः ॥ ८४ बहुदु खा: संज्ञपिताः प्रयान्ति त्वतिचिरेण दुःखविच्छित्तिम् । इति वासनाकृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ॥ ८५ कृच्छेण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव । इति तर्कमण्डलाग्रः सुखिनां घातायना देयः ॥ ८६ उपलब्धिसुगतिसाधनसमाधिसारस्य भूयसोऽभ्यासात् । स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कर्त्तनीयं सुधर्ममभिलषता ॥ ८७ धनल पिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् । झटिति घटचटकमोक्षं श्रद्धेयं नैव खारपटिकानाम् ॥ ८८
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दृष्ट्वा परं पुरस्तादशनाय क्षामकुक्षिमायान्तम् । निजमांसदानरभसादालभनीयो न चात्मापि । ८९ हिंसा नहीं करनी चाहिए ॥ ७९ ॥ 'धर्म देवताओंसे प्रकट होता है, उनके लिए इस लोक में सभी कुछ देनके योग्य हैं' इस प्रकारकी दुर्विवेक युक्त बुद्धिको धारण करके किसी भी प्राणीका घात नहीं करना चाहिए ॥ ८० ॥ 'अतिथि आदि पूज्य पुरुषके भोजनके निमित्त बकरे आदिके घात करने में कोई भी दोष नहीं है', ऐसा विचार करके अतिथिके लिए भी किसी प्राणीका घात नहीं करना चाहिए ॥८१॥ 'छोटे-छोटे बहुत प्राणियोंके घातसे उत्पन्न हुए भोजनकी अपेक्षा एकबडे प्राणी घातसे उत्पन्न हुआ भोजन उत्तम हैं ऐसा विचार करके भी किसी बड़े प्राणीका घात कदाचित् भी नहीं करना चाहिए ॥ ८२ ॥ । एक ही हिंसक प्राणी के मारनेसे बहुत प्राणियोंकी रक्षा होती है, ऐसा समझ करके भी सिंहादिक हिंस्रप्राणियोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिए ॥ ८३॥ ' अनेक प्राणियोंके घातक में सिंहादिक जीते हुए गुरु पापका उपार्जन करते हैं, ऐसी अनुकम्पा करके भी हिंसक प्राणियों को नहीं मारना चाहिए ॥८४॥ | 'बहुत दुःखोंसे पीडित प्राणी शीघ्र ही दुःखके विच्छेदको प्राप्त हो जावेंगे', इस प्रकारकी मिथ्या वासनारूपी कटारको लेकरके दुःखी भी प्राणियों को नहीं मारना चाहिए ॥८५॥ ' सुखकी प्राप्ति कष्टसे होती है, अतएव मारे गये सुखी पुरुष परलोकमें भी सुखी ही उत्पन्न होंगे ऐसा तर्क रूप खड्ग सुखी जनोंके घात करनेके लिए नहीं ग्रहण करना चाहिए ॥ ८६ ॥ | सुधर्मको अभिलाषा करनेवाले शिष्यको अधिक अभ्याससे सुगतिके साधनभूत समाधिसारको प्राप्त अपने गुरुका शिर नहीं काट देना चाहिए || ८७ ॥ भावार्थ- 'हमारे गुरुदेव अधिक काल तक योगके अभ्यास से समाधिमें निमग्न है, यदि इस समय इनका शिर काट दिया जाय, तो गुरु महाराज परम पदको प्राप्त करेंगे, ऐसो कुतर्क बुद्धिसे प्रेरित होकर यदि कोई शिष्य अपने गुरुका शिर काटेगा, तो गुरुका परम पद पाना तो सन्दिग्ध ही है, पर शिष्यको हिंसा पापका भाग होना निश्चित है। थोडेसे धन के प्यास से और शिष्यों को विश्वास उत्पन्न करने के लिए नाना प्रकारकी रीतियाँ दिखलानेवाले खारपटिक लोगों के शीघ्र ही घटके फूटने से चिडियाके मोक्ष के समान मोक्षका भी श्रदान नहीं करना चाहिए ||८८॥ भावार्थ - किसी समय भारतमें खारपटिक 'नामका एक
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