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श्रावकाचार-संग्रह
धूणि-: दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतभागी भव, अक्षीणामृतभागी भव । व्युष्टि:- व्युष्टिक्रियाश्रितं मन्त्रमितो वक्ष्ये यथाश्रुतम् । तत्रोपनयनं जन्मवर्षवर्द्धनवाग्युतम्।।१४३ भागी भव पदं ज्ञेयमदो शेषपदाष्टके । वैवाहनिष्ठशब्देन मनिजन्मपदेन च ॥ १४४ सुरेन्द्र जन्मना मन्दराभिषेकपदेन च । यौवराज्यमहाराज्यपदाभ्यामप्यनक्रमात् ॥ १४५ परमार्हन्त्यराज्याभ्यां वर्षवर्द्धनसंयुतम् । भागी भव पदं योज्यं ततो मन्त्रोऽयमुद्भवेत् १४६ चणिः- उपनयन-जन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, वैवानिष्ठवर्षवर्द्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्द्धन
भागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्द्धनमागी भव, यौवराज्यवर्षवर्द्धनमागी भव, महाराज्यवर्षवर्द्धनभागो भव, परमराज्यवर्षबद्धनभागी भव, आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव ।
(व्युष्टिक्रियामन्त्रः) चौलकर्म:चौलकर्मण्यथो मन्त्रः स्याच्चोपयनाविकम् । मुण्डभागी भवान्तं च परमादावनुस्मृतम् ।। १४७ ततो निर्ग्रन्थमुण्डादिमागी भव पदं परम् । ततो निष्क्रान्तिमुण्डादिभागी भव पदं परम् ।।१४८
हैं। इनके अन्तमें भागी भव'इस पदके संयुक्त कर देनेसे वे तीन मंत्र बन जाते हैं । इन पदोंके द्वारा निर्मित मंत्रोंका प्रयोग बुधजन अन्न प्राशन क्रियाके समय करे ।।१४१-१४२।। वे मंत्र इस प्रकार हैं-'दिव्यामृतभागी भव' (इन्द्रके दिव्य अमृतका भोक्ता हो) 'विजयामृतभागी भव' (चक्रवर्तीके विजय अमृतका भोक्ता हो) और 'अक्षीणामृतभागी भव' (तीर्थकरके अक्षीण अमतका भोक्ता हो) । इन मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं। अब यहाँसे आगे शास्त्रानुसार ब्युष्टि-क्रियाके मंत्र कहते है-उनमें सर्वप्रथम उपनयन 'पदके आगे 'जन्मवर्षवर्धन' पद लगाकर 'भागी भव' पद लगाना चाहिए । तत्पश्चात् अनुक्रमसे वैवाहनिष्ठ, मुनीन्द्रजन्म, सुरेन्द्रजन्म, मन्दराभिषेक, यौवराज्य,महाराज्य,परमराज्य और आर्हन्त्यराज्य,इन शेष आठ पदोंके साथ 'वर्षवर्धन 'और 'भागी भव' पद लगावे । तब व्युष्टिक्रियाके मंत्र इस प्रकार हो जाते है-'उपनयनवर्षवर्धनभागी भव' (उपनयनरूप जन्मके वर्षका बढानेवाला हो), 'वैवाहनिष्ठवर्षवर्धनभागी भव' (विवाहक्रियाके वर्षका बढानेबाला हो), मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्धन भागी भव' (मुनिपदके जन्मरूपवर्षका बढानेवाला हो) 'सुरेन्द्रजन्मवर्षबर्धनभागी भव' (इन्द्रपदके जन्मरूप वर्षका बढानेवाला हो) 'मदाराभिषेकवर्षवर्धन भागी भव (सुमेरुपर होनेवाले जन्माभिषेकके वर्षका बढानेवाला हो), 'यौवराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (युवराजपदके वर्षका बढानेवाला हो) । 'महारांज्यवर्षवर्धन भागी भव' (महाराजपदके वर्षका बढानेवाला हो) 'परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (चक्रवर्ती पदके वर्षका बढानेवालाहो),औरआर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (अर्हन्तपदके राज्यके वर्षकाबढानेवालाहो)।।१४३-१४६।।उक्तसर्वमंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया हुआ है । अब चौलक्रियाके मंत्र कहते हैं-आदिमें 'उपनयन' पद और अन्तमें 'मण्डभागी भव'पद बोलने प्रथम मंत्र बनता है-'उपनयनमुण्डभागी भव' (उपनयद क्रियामें मण्डनक्रियाको प्राप्त हो) यह चौलक्रियाका प्रथम मंत्र हैं । ॥१४७।। पुनः 'निर्ग्रन्थमण्डभागी भव' (निर्ग्रन्थ जिनदीक्षा लेते समय मुण्डनको प्राप्त हो) यह दूसरा मंत्र हैं। तदनन्तर 'निष्क्रान्तिमुण्डभागी भव' (मनि
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