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महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन
बहिर्यानक्रिया
तत्रोपनयन निष्क्रान्तिभागी भव पदात्परम् । भवेद् वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव पदं ततः ।। १३५ क्रमान्सुनोन्द्रनिष्क्रांतिभागी भव पद वदेत् । ततः सुरेन्द्र निष्क्रांतिभागी भव पदं स्मृतम् ।। १३६ मन्दराभिषेक निष्क्रान्तिभागो भव पदं ततः । यौवराज्यमहाराज्यपदे भागो भवान्विते ॥ १३७ निष्क्रान्तिपदमध्ये स्तां परराज्यपदं तथा । आर्हन्त्यनिष्क्रान्तिभागी भव शिखापदम् ।। १३८ पदैरेभिरयं मन्त्रस्तद्विद्भिरनुजप्यताम् । प्रागुक्तो विधिरन्यस्तु निषद्यामन्त्र उत्तरः ।। १३९ चूणिः - उपनयननिष्क्रान्तिभागी भव, वैवाहनिष्क्रान्तिभागो भव, मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, सुरेन्द्र निष्क्रान्तिभागी भव, मन्दराभिषेक निष्क्रान्तिभागी भव, यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, परमराज्य निष्क्रान्तिभागी भव, आर्हन्त्यराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव ! ( वहिर्यानमन्त्रः )
निषद्या:- दिव्यसिंहासनपदाद्द्भागी भव पदं भवेत् । एवं विजयपरमसिंहासनपदद्वयात् ।। १४० चूणि:- दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव । ( इति निषद्यामन्त्रः )
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अन्नप्राशनक्रिया:
प्राशनेऽपि तथा मन्त्रं पदैस्त्रिभिरुदाहरेत् । तानि स्युदिदव्य विजय क्षीणामृतपदानि वै । १४१ भागी भव पदेनान्ते युक्तेनानुगतानि तु । पदैरेभिरयं मन्त्रः प्रयोज्यः प्राशने बुधैः ।। १४२
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चुकी हैं, इसलिए उसे पुनः नहीं कहते हैं । अब इसके पश्चात् बहिर्यानक्रिया के मन्त्र इस प्रकार जानना चाहिये ।। १३४ ।। उनमें सर्वप्रथम 'उपनयन निष्क्रान्ति भागीभव' (हे वत्स, तू उपनयन संस्कारके लिए निष्क्रान्ति अर्थात् बाहिर निकलनेका भागी हो ), वैवाह निष्क्रान्ति भागीभव' ( विवाह के लिए निष्काति भागी हो), ये मंत्र पढे ॥ १३५ ॥ तत्पश्चात् अनुक्रम से 'मुनीन्द्र निष्क्रान्तिभागी भव' ( मुनिपद के लिए निष्क्रमणकल्याणका भागी हो ) यह पद बोले । पुनः 'सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव' (सुरेन्द्रपदकी प्राप्तिके लिए निष्क्रमण करने वाला हो ) यह पद स्मरणीय है ॥१३६॥ तदनन्तर 'मन्दराभिषेकनिष्क्रान्तिभागी भव' (सुमेरुपर जन्माभिषेक के लिए निष्क्रमणका भागी हो ) यह मंत्र बोले । पुनः 'यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' ( युवराज पदके लिए निष्क्रमणका भागी हो ) तदनन्तर 'महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' ( महाराज पदके लिए निष्क्रमण - भागी हो ) तत्पश्चात् परमराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' ( चक्रवर्ती पदके लिए निष्क्रमण भागी हो ) पुनः 'आर्हन्त्य निष्क्रान्तिभागी भव' (अरहन्त पदके लिए निष्क्रमण भागी हो ।) यह अन्तिम शिखा पद बोले ।। १३७-१३८। इस प्रकार इन पदोंके द्वारा मंत्र - वेत्ता द्विज बहिर्यान क्रियाके मंत्रोंको पढे । शेष समस्त विधि पूर्वोक्त ही हैं। अब आगे निषद्यामंत्र कहते हैं ।। १३९ ॥ | बहिर्यान क्रियाके मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं । निषद्यामंत्र इस प्रकार हैं- 'दिव्यसिंहासनभागी भव' (इन्द्रके दिव्य सिंहासनका भोक्ता हो ) इसीप्रकार 'विजयसिंहासनभागी भव' (चक्रवर्ती के विजयसिंहासनका भोक्ता हो) और 'परमसिंहासनभागी भव' (तीर्थकरके परम सिंहासनका भोक्ता हो ) इन मंत्रोंको बोले ।। १४०11 उक्त मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया है । अब अन्नप्राशन क्रियाके मंत्र कहते हैं - अन्नप्राशन क्रिया के समय भी तीन पदोंके द्वारा मंत्रका उद्धार करे 1 वे पद दिव्यामृत, विजयामृत और अक्षीणामृत
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