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श्रावकाचार-संग्रह
स्यात् प्रजान्तरसम्बन्धे स्वोन्नतेरपरिच्युतिः । याऽस्य सोक्ता प्रजासम्बन्धान्तरं नामतो गणः। २०७ यथा कालायसाविद्धं स्वर्ण याति विवर्णताम् । न तथाऽस्यान्यसम्बन्धे स्वगुणोत्कर्षविप्लवः ॥२०८ किन्तु प्रजान्तरं स्वेन सम्बद्धं स्वगुणानयम् । प्रापयत्यचिरादेव लोहधातुं यथा रसः ।। २०९ ततो महानयं धर्मप्रभावोद्योतको गुणः । येनायं स्वगुणैरन्यानात्मसात्कर्तुमर्हति ।। २१०
___ असत्यस्मिन् गुणेऽन्यस्मात् प्राप्नुयात् स्वगुणच्युतिम् ।
सत्येवं गुणवत्तास्य निष्कृष्येत द्विजन्मनः ।। २११ अतोऽतिबालविद्यादीन्नियोगान् दशधोदितान् । यथार्हमात्मसात्कुर्वन् द्विजः स्याल्लोकसम्मतः।।२१२ गणेष्वेव विशेषोऽन्यो यो वाच्यो बहुविस्तरः । स उपासकसिद्धान्तादधिगम्य प्रपञ्चतः ।। २१३ क्रियामन्त्रानुषङ्गेण व्रतचर्या क्रियाविधौं । दशाधिकारा व्याख्याताः सवृत्तैराहता द्विजैः ।। २१४ क्रियामन्त्रास्त्विह ज्ञेया ये पूर्वमनुवणिता: । सामान्यविषयाः सप्त पीठिका मन्त्ररूढयः ॥ २१५ ते हि साधारणाः सर्वक्रियासु विनियोगिनः । तत औसर्गिकानेतान् मन्त्रान् मन्त्रविदो विदुः।।२१६ भोतर सम्पादन करे । ज्ञान और चरित्र आदिका धारण करना ही मान्यत्व प्राप्त करनेका प्रयत्न कहलाता हैं,अतएव द्विजोंको ज्ञान और चारित्ररूपी सम्पत्ति कभी नहीं छोडना चाहिए।।२०५-२०६॥ अब आगे ब्राह्मणका प्रजान्तर सम्बन्ध गुण कहते हैं-प्रजान्तर अर्थात् अन्य धर्मावलम्बियोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी अपनी उन्नतिसे च्युत नहीं होना ही ब्राह्मणका प्रजान्तरसम्बन्ध नामक गुण कहा गया हैं।।२०७।। जिस प्रकार काले लोहेके साथ मिला हुआ सुवर्ण विरूपताको प्राप्त हो जाता हैं,उस प्रकारसे अन्य पुरुषोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी इस ब्राह्मणके अपने गुणोंके उत्कर्षमें कोई विप्लव या बाधाक। प्रादुर्भाव नहीं होता हैं, अर्थात् लोहे के सम्बन्धसे सोना तो खराब हो जाता हैं,पर उत्तम द्विजमें अन्य धर्मावलम्बियोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी कोई खराबी नहीं आती हैं ॥२०८॥किन्तु जैसे रसायन अपने साथ सम्बन्ध रखनेवाले लोहेको शीघ्र ही अपने गुण प्राप्त करा देती है,अर्थात् सोना बना देती हैं,उसी प्रकार यह ब्राह्मण भी अपने साथ सम्बन्ध रखनेवाले अन्य पुरुषोंको शीघ्र ही अपने गुण प्राप्त करा देता हैं।।२०९॥ इस लिए कहना चाहिए कि यह प्रजान्तर सम्बन्ध धर्मके प्रभावका उद्योत करनेवाला महान् गुण है,क्योंकि इसीके द्वारा यह द्विज अपने गुणों से अन्य लोगोंको आत्मसात् करनेके योग्य होता है,अर्थात् उन्हें अपने समान बना लेता हैं॥२१०।। इस गुणके अभाव में अन्य लोगोंके सम्बन्धसे यह अपने गुणोंसे च्युत हो सकता है और ऐसा होनेपर इस द्विजकी गुणवत्ता ही नष्ट हो जायगी ।। २११।। अतएव अतिबालविद्या आदि जो दशप्रकारके अधिकार निरूपण किये हैं,उन्हें यथायोग्य रीतिसे आत्मसात् करनेवाला द्विज ही लोगोंका मान्य हो सकता हैं।।२१२।। इन गुणरूप दश अधिकारोंमें जो अन्य विशेष गुण बहुत विस्तारके साथ विवेचन करने के योग्य है,उन्हें उपासकाध्ययनसिद्धान्तसे विस्तारके साथ जान लेना चाहिए ।।२१३।। इस प्रकार व्रतचर्या नामक क्रियाकी विधिका वर्णन करते समय उस क्रियाके योग्य मंत्रोंके प्रसंगसे सदाचार-सम्पन्न द्विजोंके द्वारा आदरणीय दश अधिकारोंका निरूपण किया ॥२१४॥इस प्रकरण में जिनका वर्णन पहले किया गया हैं,उन्हें क्रियामंत्र जानना चाहिए और जो सात पीठिकामंत्र नामसे प्रसिद्ध हैं.उन्हें सर्व क्रियाओंमें प्रयोग किये जानेवाले सामान्य मंत्र जानना चाहिए ॥२१५॥ ये पीठिका नामवाले साधारण मंत्र सभी क्रियाओंमें का । आते हैं,अतः मंत्रवेत्ता विद्वान उन्हें औत्स
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