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श्रावकाचार-संग्रह
ततो मुनीन्द्र कल्याणभागी भव पदं स्मृतम् । पुनः सुरेन्द्र कल्याणभागी भव पदात्परम् ।। १०४ मन्दराभिषेककल्याणभागीति च भवेति च । तस्माच्च यौवराज्यादिकल्याणपदसंयुतम् ॥ १०५ भागी भवपदं वाच्यं मन्त्रयोगविशारदः । स्यान्महारराज्यकल्याणभागी भव पदं परम् ।। १०६ भूयः परमराज्यादिकल्याणोपहितं मतम् । भागी भवेत्यथार्हन्त्यकल्याणेन च योजितम् १०७ चूणिः- सज्जातिकल्याणभागी भव,सद्गृहिकल्याणभागी भव,वैवाहकल्याणभागी भव, मुनीन्द्र
कल्याणभागी भव,सुरेन्द्र कल्याणभागी भव,मन्दराभिषेककल्याणभागी भव,योवराज्यकल्याणभागी भव,महाराज्यकल्याणभागी भव,परमर.ज्यकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव।
( मोदक्रियामन्त्र: ) प्रियोद्भवमन्त्र:प्रियोद्भवे च मन्त्रोऽयं सिद्धार्चनपुरःसरम् । दिव्यनेमिविजयाय पदात्परमनेमिवाक् ।। १०८ विजयायेत्यथाहंन्त्यनेम्यादिविजयाय च । युक्तो मन्त्राक्षरैरेभिः स्वाहान्तः सम्मतो द्विजैः ।। १८९ चूणिः- दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा, परनेमिविजयाय स्वाहा, आहन्त्यनेमिविजय य स्वाहा ।
(प्रयोद्भवमन्त्रः) जन्मसंस्कारमन्त्रोऽयमेतेनार्भकमादितः । सिद्धाभिषेकगन्धाम्बसंसिक्तं शिरसि स्थितम् । ११० कुलजातिवयोरूपगणः शीलप्रजान्वयैः । भाग्याविधवतासौम्यमतित्वैः समधिष्ठिता । १११ सम्यग्दृष्टिस्तवाम्बेयमतस्वमपि पुत्रकः । सम्प्रीतिमाप्नहि त्रीणि प्राप्य चक्राण्यनुक्रमात् ।। ११२ का धारक हो) यह पद पढे । पुनः 'वैवाहकल्याणभागी भव' (विवाहोत्सका धारक हो) यह पद उच्चारण करे॥१०३।। तत्पश्चात् 'मुनीन्द्रकल्याणभागी भव' (महामुनि पदके कल्याणका धारक हो) यह पद बोले । तदनन्तर 'सुरेन्द्र कल्याण भव' (इन्द्र पदके कल्याणका धारक हो) यह पदकहे।।१०४॥पुनः मन्दराभिभिषेक कल्याणभागी भव' (सुमेरु पर जन्माभिषेक कल्याणकको प्राप्त हो,तत्पश्चात् 'यौवराज्यकल्याणभागी भव' (युवराज पदके कल्याणका भागी हो) यह पद पढे ॥१०५।। तदनन्तर मंत्रोंके प्रयोग करनेमे विशारद लोग 'महाराज्यकल्याणभागी भव' (महाराज पदके कल्याणकका भोक्ता हो) यह मंत्र बोलें ।।१०६।। पुन। 'परणराज्यकल्याणभागी भव' (परम राज्यके कल्याणका भागी हो) यह पद पढे । तदनन्तर 'आर्हन्त्यकल्याणभागी भव' (अरहन्त पदके कल्याणकका भोक्ता हो) यह पद बोले ॥१०७।। मोदक्रियाके सर्व मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया हुआ हैं । अब 'प्रियोद्भव क्रियाके मंत्र कहते हैं । 'प्रियोद्भव क्रियामें सिद्धोंकी पूजा करनेके पश्चात् इस प्रकार मंत्रोंको पढे-'दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा' (दिव्यनेमिके द्वारा कर्म-शत्रुओंपर विजय पानेवालेके लिए यह हव्य समर्पण करता हूँ) 'परमनेमि विजयाय स्वाहा' ( परमनेमिके द्वारा कर्म-शत्रुओं पर विजय पानेवालेके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) और 'आर्हन्त्यने मिविजयाय स्वाहा' (अरहन्त पदरूप नेमिके द्वारा कर्म-शत्रुओं पर विजय पाने वालेके लिए हव्य समर्पण णरता हूँ इन मंत्रोंको बोलना द्विजोंको लिए आवश्यक माना गया हैं। १०८-१०९।। मोदक्रियाके मंत्रोंका संग्रह मलमें दिया हुआ है । अब जन्म-संस्कारके मंत्र कहते है-सर्वप्रथम सिद्ध-प्रतिमाका अभिषेक कर उस गन्धोदकसे उत्पन्न हुए बालकका अभिषिचन कर मंत्र पढते हुए शिर पर हाथ फेरे और कहे-यह तेरी माता कूल, जाति, वय,रूप आदि गुणोंसे विभूषित हैं,शीलवती हैं, उत्तम सन्तान उत्पन्न करनेवाली हैं, भाग्यवती हैं, सौभाग्यशालिनी हैं, सौम्य-शान्तमूर्ति हैं, और सम्यग्दृष्टि हैं। अतएव हे पुत्र, इस
माताके सम्बन्धसे तू भी अनुक्रम से दिव्यचक्र, विजयचक्र और परमचक्र, इन तीनों चक्रोंको पाकर Jain Education International
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