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श्रावकाचार-संग्रह
नष्टाधिमासदिनयोः संक्रान्तौ हानिमत्तिथौं । दीक्षाविधि ममक्षणां नेच्छन्ति कृतबुद्धयः ।। १६० सम्प्रदायमनादत्य यस्त्विमं दीक्षयवधीः । स साधुभिबंहिः कार्यो वृद्धात्यासादनारतः ।। १६१ तत्र सूत्रपदान्याहः योगीन्द्राः सप्तविंशतिम् । निर्णीतै भवेत्साक्षात् पारिवाज्यस्य लक्षणम्।।१६२ जातिमत्तिश्च तत्रस्थं लक्षणं सुन्दराङ्गता । प्रभामण्डलचक्राणि तथाभिषवनाथते ॥ १६३ सिंहासनोपधाने च छत्रचामरघोषणः । अशोकवृक्षनिधयो गृहशोभावगाहने ।। १६४ क्षेत्रज्ञाऽऽज्ञा समाः कोतिर्वन्द्यता वाहनानि च । भाषाहार सुखानीति जात्यादिः सप्तविंशतिः।।१६५ जात्यादिकानिमान सप्तविंशति परमेष्ठिनाम् । गुणानाहु जेद्दीक्षां स्वेषु तेष्वकृतादरः ।। १६६ जातिमानप्यनुत्सिक्तः सम्भजेदर्हतां क्रमौ । यतो जात्यन्तरे जात्यां याति जातिचतुष्टयीम्।।१६७ जातिरन्द्री भवेदिव्या चक्रिणां विजयाश्रिता । परमः जातिराहन्त्ये स्वात्मोत्था सिद्धिमीयषाम्।।१६८ मादिष्वपि नेतव्या कल्पनेयं चतुष्टयो । पुराण रसम्मोहात क्वचिच्च त्रितयी मता ॥ १६९ कर्शयेन्मूत्तिमात्मीयां रक्षन्मूर्तीः शरीरिणाम् । तपोऽधितिष्ठेद । दिव्यादिमूर्तीराप्तुमना मुनिः॥१७० स्वलक्षणमनिर्देश्यं मन्यमानो जिनेशिनाम् । लक्षणान्यभिसन्धाय तपस्येत् कृतलक्षणः ॥ १७१ ही दीक्षा ग्रहण करनेकी योग्यता मानी गई हैं ॥१५८॥ जिस दिन ग्रहोंका उपराग हो,सूर्य-चन्द्रका ग्रहण हो अथवा उनपर (परिवेष) मण्डल हो,इन्द्र-धनुष प्रकट हो रहा हो,वक्र या क्रूर ग्रहोंका उदय हो, आकाश मेघ-पटलसे आच्छादित हो, क्षयमास या अधिक मासका दिन हो, संक्रान्तिका समय हो, अथवा तिथिका क्षय हो,उस दिन ज्ञानियोंने मुमुक्षुजनोंका दीक्षा विधान स्वीकार नहीं किया हैं, अर्थात् उक्त प्रकारके अवसरोंपर जिन-दीक्षा नहीं देना चाहिये ॥१५९-१६०॥जो अज्ञानी इस दीक्षा-सम्प्रदायका अनादर करके किसी नवीन शिष्यको दीक्षा दे देता हैं,साधुजनोंको उसका बहिष्कार करना चाहिए, क्योंकि बह वृद्धजनोंकी आम्नायकी आसादना करनेमें तत्पर हैं।।१६१।। इस पारिव्रज्य क्रिया में योगीन्द्रोंने सत्ताईस सूत्रपद कहे हैं,जिनका कि निर्णय होनेपर पारिवाज्यका साक्षात् स्वरूप प्रकट होता है ।।१६२।। वे सत्ताईस सूत्र-पद इसप्रकार है-१.जाति, २.मूर्ति, ३. मतिगत लक्षण, ४. अंग-सौन्दर्य, ५. प्रभा, ६ मंडल, ७. चक्र, ८.अभिषेक,९.नाथता,१० सिंहासन, ११. उपधान, १२. छत्र, १३. चामर, १४. घोषणा, १५. अशोकवृक्ष,१६.निधि, १७. गृहशोभा, १८. अवगाहन, १९. क्षेत्रज्ञ, २०. आज्ञां, २१. सभा,२२.कीर्ति,२३.वन्दनीयता,२४.वाहन, २५. भाषा,२६.आहार और २७. सुख । ये जाति आदिक सत्ताईस सूत्रपद परमेष्ठियोंके गुण स्वरूप कहे गये हैं। इन सूत्रपदोंमें आदर करते हुए, तथा अपनी जाति,मूर्ति आदिमें आदर न करते हए ही भव्य पुरुषको दीक्षा धारण करना चाहिये ॥१६३-१६६।। दीक्षा-धारक उत्तम जातिका भी हो,तो भी उसे अहंकार छोडकर अर्हन्तदेवोंके चरणोंकी सेवा करनी चाहिये जिससे कि दूसरे जन्ममें उत्पन्न होनेपर दिव्या,विजयाश्रिता,परमा और स्वात्मोत्था इन चार उत्तम जातियोंको प्राप्त हो ॥१६७॥इन्द्रकी दिव्या जाति है,चक्रवत्तियोंकी विजयाश्रिता जाति हैं, अरहन्तोंकी परमा जाति है और सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करनेवालोंकी स्वात्मोत्था जाति हैं।।१६.८॥इन चारों गण विशेषोंकी कल्पना मूर्ति आदिक शेष पदोंमें भी पुराणज्ञोंको बिना किसी व्यामोहके कर लेना चाहिए। किसी पदमें तीन ही पदोंकी कल्पना मानी गई हैं ॥१६९।। जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियोंको प्राप्त करना चाहता है, वह अपनी मूर्तिको कृश करे और प्राणियोंकी मूर्तियोंकी रक्षा करता हुआ तपका आचरण करे।।१७०॥इसीप्रकार अनेक लक्षणोंको धारण करनेपर भी अपने लक्षणों को उल्ले
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