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श्रावकाचार-संग्रह पुनर्विवाहसंस्कारः पूर्वः सर्वोऽस्य सम्मतः सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य पत्न्याः संस्कारमिच्छतः ।। ६०
इति विवाह क्रिया। वर्णलाभस्ततोऽस्य स्यात् सम्बन्धं संविधित्सतः समानाजीविभिलब्धवणरन्यैरुपासकः ।। ६१ चतुरः श्रावकज्येष्ठावाहूयकृतसत्क्रियान् । तान ब्यावस्म्यनुग्राह्यो भवद्धिः स्वसमीकृतः ।। ६२ यूयं निस्तारका देवब्रह्मणा लोकपूजिताः । अहं च कृतदीक्षोऽस्मि गृहीतोपासकवतः ।। ६३ मया तु चरितो धर्मः पुष्कलो गृहमेधिनाम् । दत्तान्यपि च दानानि कृतं च गुरुपूजनम् ।। ६४ अयोनिसंभवं जन्म लब्ध्वाहं गुर्वनुग्रहात । चिरभावितमुत्सृज्य प्राप्तो वृत्तमभावितम् ।। ६५ व्रतसिद्धयर्थमेवाहमुपनीतोऽस्मि साम्प्रतम् । कृतविद्यश्च जातोऽस्मि स्वधीतोपासकश्रुतः ॥ ६६ व्रतावतरणस्यान्ते स्वीकृतामरणोऽस्म्यहम् । पत्नी च संस्कृताऽऽत्मीया कृतपाणिग्रहा पुनः॥ ६७ एवं कृतवतस्याद्य वर्णलाभों ममोचितः। सुलभः सोऽपि युष्माकमनुज्ञानात् सधर्मणाम् ।। ६८ इत्युक्तास्ते च तं सत्यमेवमस्तु समञ्जसम् । त्वयोक्तं श्लाघ्यमेवैतत् कोऽन्यस्त्वत्सदशो द्विजः ।। ६९ युष्मादृशामलाभे तु मिथ्यादृष्टिभिरप्यमा । समानाजीविभिः कर्तुं सम्बन्धोऽभिमतो हि नः ॥७० इत्युक्त्वेनं समाश्वास्य वर्णलाभेन युञ्जते । विधिवत् सोऽपि तं लब्ध्वा याति तत्समकक्षताम् ॥७१
इति वर्णलाभक्रिया। योग्य श्रावककी दीक्षासे नियुक्त करता हैं, तब उसके विवाह नामकी क्रिया होती हैं। ५९।। अपनी पत्नीके संस्कारको चाहनेवाले उस भव्यका उसी स्त्री के साथ सिद्ध भगवान्की पूजन पूर्वक पुनः विवाह-संस्कार करना आवश्यक माना गया हैं।.६०।। यह बारहवीं विवाह क्रिया हैं । तदनन्तर समान आजीविका करनेवाले वर्णलाभको प्राप्त अन्य श्रावकोंके साथ सम्बन्ध स्थापित करनेकी इच्छासे इस भव्यके वर्णलाभ नामकी क्रिया होती हैं॥६१॥ इस क्रियाके करते समय वह भव्य चार प्रमुख श्रावकोंको बुलाकर और उनका आदर-सत्कारकर उनसे कहे कि आप लोग मुझे अपने समान बनाकर मेरेपर अनुग्रह करें ॥६२।। आपलोग संसार तारक देव ब्राह्मण है, लोक-पूजितहै और मैं उपासक व्रतधारक नवशिक्षित हूँ ॥६३।। मैंने गृहस्थोंका धर्म भलीभाँति आचरण किया है, सर्वप्रकारके दान भी दिये है और गुरुजनोंका पूजन भी किया हैं ।६४।। मैंने गुरुके अनुग्रहसे अयोनिसंभव (मातृयोनिके बिना ही मन्त्र-संस्कारबाला) जन्म पाकर चिरकालसे पालन किया हुआ मिथ्यात्व आचरण छोडकर पूर्व-अभावित इस सम्यक्चारित्रको पाया है ॥६५।। व्रतोंकी सिद्धिके लिये ही मैंने इससमय यह यज्ञोपवीत धारण किया हैं और श्रावकाचार पढकर तथा अन्य विद्याओंका अभ्यासकर विद्वत्ता भी प्राप्त की हैं ॥६६॥ व्रतावतरण क्रियाके पश्चात् ही मैंने आभूषण स्वीकार किये हैं, मैंने अपनी पत्नी भी संस्कार-युक्त की हैं और उसके साथ पुनः विवाह-संस्कार भी किया है ॥६७।। इसप्रकारका व्रत-धारण करनेवाले मुझे इससमय वर्णलाभ करना उचित ही हैं और वह भी आप सब साधर्मीजनोंकी अनुज्ञासे सहजमें सुलभ है ।।६८॥ इसप्रकार कहने पर वे देव ब्राह्मण कहें कि तुमने सत्य ही कहा है, तुम्हारा कथन समीचीन और प्रशंसनीय है। तुम्हारे सदृश अन्य कौन द्विज है ॥ ६९ ॥ आप जैसे साधर्मीजनके प्राप्त नहीं होनेपर हम लोगोंको समान आजीविका करनेवाले मिथ्यादृष्टियोंके साथ भी अपना विवाहादि सम्बन्ध करना पडता है॥७०॥ इस प्रकार कह कर और उसे आश्वासन देकर वे लोग उसे वर्णलाभसे संयुक्त करते है और वह भव्य भी विधिपूर्वक वर्णलाभको पाकर उन श्रावकोंकी समानताको प्राप्त होता है।।७१॥ यह तेर
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