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श्रावकाचार-संग्रह तदिदं तस्य साभ्राज्यं नाम धर्म्य क्रियान्तरम् । येनानुपालितेनायमिहामुत्र च नन्दति ।। २६५
( इति साम्राज्यम् ।) एवं प्रजाः प्रजापालानपि पालयतश्चिरम् । काले कस्मिंश्चिदुत्पन्नबोधे दीक्षोद्यमो भवेत् ॥ २६६ सैषा निष्क्रान्तिरस्येष्टा क्रिया राज्याद् विरज्यतः । लौकान्तिकामरै भूयो बोधितस्य समागतः।।२६७ कृतराज्यार्पणो ज्येष्ठे सूनो पार्थिवसाक्षिकम् । सन्तानपालने चास्य करोतीत्यनुशासनम् ।। २६८ त्वया न्यायधनेनाङ्ग भवितव्यं प्रजाधृतौ । प्रजा कामदुधा धेनु: मता न्यायेन योजिता ॥ २६९ राजवृत्तमिदं विद्धि यन्न्यायन धनार्जनम् । वर्धनं रक्षणं चास्य तीर्थे च प्रतिपादनम् ।। २७० प्रजानां पालनार्थ च मतं मत्यनुपालनम् । मतिहिता हितज्ञानमात्रिकामुत्रिकाथयोः ।। २७१ ततः कृतेन्द्रियजयो वृद्धसंयोगसम्पदा । धर्मार्थशास्त्रविज्ञानात् प्रज्ञां संस्कर्तुमर्हसि ॥ २७२ अन्यथा विमति भूपो युक्तायुक्तनभिज्ञकः । अन्यथाऽन्यैः प्रणेयः स्यान्मिथ्याज्ञानलवोद्धतैः ।। २७३ कुलानुपालने चायं महान्तं यत्नमाचरेत् । अज्ञातकुलधर्मों हि दुर्वृतैर्दूषयेत् कुलम् ।। २७४ तथायमात्मरक्षायां सदा यत्नपरो भवेत् । रक्षितं हि भवेत् सर्वं नृपेणात्मनि रक्षिते ।। २७५ करते हुए उन राजाओंका पालन करते है। २६४ ।। भावार्थ-अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करनेको योग कहते है और प्राप्त हुई वस्तुके संरक्षण करनेको क्षेम कहते हैं । इस प्रकार यह उनकी धर्म-युक्त साम्राज्य नामकी वह क्रिया हैं, जिसके कि पालन करनेसे यह जीव इस लोक और परलोक दोनोंही स्थानोंमें सदा आनन्द पाता हैं ।। २६५ ॥ यह सैतालीसवीं साम्राज्य क्रिया है। इस प्रकार प्रजा और प्रजा-पालकोंका चिरकाल तक पालन करते हुए किसी समय प्रबोधके प्रकट होने पर वे दीक्षा लेनेको उद्यमी होते है ।। २६६ ॥ राज्यसे विरागको प्राप्त होनेवाले और ब्रह्मलोकसे आयेहुए लौकान्तिक देवोंके द्वारा पुनरपि सम्बोधित उनकी यह निष्क्रान्ति नामक क्रिया मानी गई है ॥ २६७ ।। उस समय वे महाराज, राजाओंकी साक्षीपूर्वक ज्येष्ठ पुत्र पर राज्यका भार समर्पण कर प्रजा-पालन करनेके लिए इस प्रकार शिक्षा देते है ।। २६८ ।। हे पुत्र, प्रजाके पालन करने में तू न्यायरूपी धनसे युक्त रहना,अर्थात् न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करना ; क्योंकि न्यायसे पालन की गई प्रजा मनोरथों को पूर्ण करनेवाली कामधेनु मानी गई हैं ।। २६९ । हे वत्स, तू इसे ही राजधर्म समझ कि न्यायसे धन उपार्जन करना, उसकी वृद्धि करना, उसका संरक्षण करना और स्थावर तीर्थ सिद्धक्षेत्र आदि तथा जंगमतीर्थ पात्र आदि में दान देना ।। २७० ।। प्रजाका पालन करनेके लिए सबसे पहले अपनी मति (बुद्धि) की रक्षा करना आवश्यक माना गया हैं। इस लोक और परलोक-सम्बन्धी पदार्थोके विषयमें हित और अहितका ज्ञान होना ही मति या बुद्धि कहलाती है ।। २७१ ।। अतएब इन्द्रियविजयी होकर वृद्धजनोंकी संगतिरूप सम्पदाद्वारा धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्रके विशिष्ट ज्ञानसे तुम्हें अपनी बुद्धिको भलीभाँति सुसंस्कृत करना चाहिए ॥ २७२ ॥ यदि राजा अपनी बुद्धिको सुसंस्कृत नहीं बनायेगा, तो वह योग्य-अयोग्यसे अनभिज्ञ रहकर विपरीत बुद्धिवाला हो जायेगा और तब वह मिथ्याज्ञानके लेश मात्रसे उद्धत अन्य कुमार्गगामियों के द्वारा कुमार्गगामी बना दिया जायगा ॥२७३।।
राजाओंका कुलकी मर्यादा पालन करने के लिए महान् यत्न करना चाहिए, क्योंकि कुल धर्मसे अनभिज्ञ मनुष्य दुराचरणोंसे अपने कुलको दूषित कर देता हैं ।। २७४ ।। तथा राजाको अपनी आत्मरक्षामें भी सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए,क्योंकि राजाके द्वारा आत्म-रक्षा किये जाने पर ही सब सुरक्षित रह सकता हैं, अन्यथा नहीं ॥ २७५ ॥ अपनी रक्षा नहीं करनेवाले राजाका शत्रुओंसे,तथा
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