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श्राद्धविधि प्रकरणम् पश्चात् शुकराज ने भी यह संपूर्ण बात निष्कपट भाव से स्वीकार की। केवली महाराज ने पुनः कहा कि, 'हे राजपुत्र! इसमें आश्चर्य ही क्या? यह संसार नाटक के समान है। सर्व जीवों ने परस्पर सब प्रकार के सम्बंध अनंतबार पाये हैं। कारण कि जो इस भव में पिता है, वह दूसरे भव में पुत्र हो जाता है, पुत्र है वह पिता हो जाता है,स्त्री है वह माता हो जाती है और माता है वह पिता हो जाता है। ऐसी कोई भी जाति नहीं,योनि नहीं, स्थान नहीं तथा कुल नहीं कि जहां सर्व प्राणी अनेकों बार जन्मे तथा मरे न हों। इसलिए सत्पुरुष को समता रखकर किसी भी वस्तु पर राग, द्वेष न रखना चाहिए। केवल व्यवहार-मार्ग अनुसरण करना उचित है।'
पश्चात् राजा को संबोधनकर श्रीदत्त मुनि बोले कि, 'हे राजन्! मुझे ऐसा ही संबन्ध विशेष वैराग्य का कारण हुआ है, सो चित्त देकर सुनश्री दत्त केवली का चरित्र :
श्रीदेवी के रहने के मंदिर समान श्रीमंदिरपुर नामक नगर में एक स्त्रीलंपट,कपटी तथा दुर्दान्त (जो किसी से जीता न जा सके) सूरकान्त नामक राजा राज्य करता था। उसी नगर में महान उदार सोम नामक श्रेष्ठी (सेठ) रहता था। उसकी स्त्री सोमश्री अत्यंत सुन्दर थी। उसको श्रीदत्त नामक एक पुत्र तथा श्रीमती नामक पुत्र-वधू थी। इन चारों का मिलाप उत्तम पुण्य के योग से ही हुआ था। कहा भी है कि
यस्य पुत्रा वशे भक्ता, भार्या छन्दानुवर्तिनी।
विभवेष्वपि सन्तोषस्तस्य स्वर्ग इहैव हि ।।१।। जिस पुरुष का पुत्र आज्ञाकारी हो, स्त्री पतिव्रता तथा आज्ञाधारिणी हो तथा वह मिले उतने ही द्रव्य में संतुष्ट हो उसके लिये यहाँ स्वर्ग है। एक समय सोमश्रेष्ठि स्त्री सहित वायु सेवनार्थ उद्यान में गया। देवयोग से राजा सूरकान्त भी उसी उद्यान में आया। वहां सुन्दर सोमश्री को देखकर उस पर आसक्त हो गया और राग वश होकर क्षण मात्र में उसे अपने अन्तःपुर में भेज दी। सत्य है-तरुणावस्था, धन की विपुलता, अधिकार तथा अविवेक इन चारों में से कोई एक वस्तु भी हो तो अनर्थकारी है तो फिर जहां चारों एकत्र हो जावे वहां अनर्थ उत्पन्न होने में संशय ही क्या है? . सोमश्रेष्ठि ने मंत्री आदि से प्रेरणा की तदनुसार उन लोगों ने युक्तिपूर्वक राजा को समझाया कि 'महाराज! अन्याय अकेला ही राजरूपी लता को जलाकर भस्म कर देने के लिए दावाग्नि के समान है, ऐसी अवस्था में कौन राज्यवृद्धि की इच्छुक व्यक्ति परस्त्री की लालसा करता है? सदैव राजा लोग ही प्रजा को अन्याय मार्ग से बचाते हैं उसके बदले यदि स्वयं वे ही अन्याय करने लगे तो मानों समुद्र में बलवान् मत्स्य निर्बल मत्स्य को खा जाते हैं ,वही नीति हुई।' इत्यादि, इस कथन का राजा के मन पर कुछ भी असर न हुआ, उसने उलटे मंत्री आदि को निकाल दिये और नाना प्रकार से अग्निवर्षा
१. मत्स्य गलागलन्याय