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श्राद्धविधि प्रकरणम् भक्तिपूर्वक उनको वन्दना करना, उनकी सेवा पूजा करना,जब वे जाये तो उनके पीछेपीछे जाना। इस प्रकार संक्षेप से गुरु का आदर होता है। वैसे ही गुरु की बराबरी में, मुख संमुख, अथवा पीठ की तरफ भी न बैठना चाहिए। उनके शरीर से भीड़कर न बैठना, वैसे ही उनके पास पग या हाथ की पालखी वालकर अथवा लंबे पैर करके भी न बैठना। अन्य स्थान में भी कहा है कि पालखी वालना, टेका लेकर बैठना, पग लम्बे करना, विकथा करना, अधिक हंसना इत्यादि गुरु के समीप वर्जित हैं। और भी कहा है किउपदेश कैसे सुनना ?
निहाविकहापरिवज्जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं।
भत्तिबहुमाणपुव्वं उवउत्तेहिं सुणेअव्वं ।।४।। सुननेवाली व्यक्ति ने निद्रा तथा विकथा का त्यागकर मन, वचन, काया की गुप्ति रखकर, हाथ जोड़कर और बराबर उपयोग सहित भक्ति से आदरपूर्वक गुरु के उपदेश वचन सुनना। इत्यादिक सिद्धान्त में कही हुई रीति के अनुसार गुरु की आशातना टालने के निमित्त गुरु से साढ़े तीन हाथ का अवग्रहक्षेत्र छोड़, उसके बाहर जीवजन्तु रहित भूमि पर बैठकर धर्मोपदेश सुनना। कहा है कि
धन्यस्योपरि निपतत्यहितसमाचरणधर्मनिर्वापी।
गुरुवदनमलयनिःसृतवचनरसश्चन्दनस्पर्शः ।।१।।
शास्त्र से निन्दित आचरण से उत्पन्न हुए ताप को नाश करनेवाला, सद्गुरु के मुखरूपी मलयपर्वत से उत्पन्न हुआ चंदनरस सदृश वचनरूपी अमृत सत्पुरुषों के ही ऊपर गिरता है।
धर्मोपदेश सुनने से अज्ञान तथा मिथ्याज्ञान का नाश होता है, सम्यक्त्व का ज्ञान होता है,संशय जाता रहता है, धर्म में दृढ़ता होती है, व्यसनादिकुमार्ग से निवृत्ति होती है,सन्मार्ग में प्रवृत्ति होती है,कषायादि दोष का उपशम होता है, विनयादि गुणों की प्राप्ति होती है, कुसंगति का त्याग होता है, सत्संग का लाभ होता है, संसार से वैराग्य उत्पन्न होता है, मोक्ष की इच्छा होती है, शक्त्यानुसार देशविरति की अथवा सर्व विरति की प्राप्ति होती है, अंगीकार की हुई देशविरति अथवा सर्वविरति की सर्वप्रकार से एकाग्र मन से आराधना होती है। इत्यादिक अनेक गुण हैं। यह नास्तिक प्रदेशी राजा,आमराजा,कुमारपाल,थावच्चापुत्र इत्यादिके दृष्टान्त से जानना चाहिए। कहा है कि
मोहं धियो हरति कापथमुच्छिनत्ति, संवेगमुन्नपयति प्रशमं तनोति।
सूते विरागमधिकं मुदमादधाति, जैनं वचः श्रवणतः किमु यन्न दत्ते।। जिनेश्वर भगवन् का वचन सुने तो बुद्धि का मोह चला जाये, कुपन्थ का उच्छेद हो जाये, मोक्ष की इच्छा बढ़े, शांति का विस्तार हो अधिक वैराग्य उपजे, व अतिशय