Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 310
________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 299 तथा गाय, श्वान, पक्षी आदि जीवों का सूंघा हुआ अन्न भक्षण न करना। जो भक्ष्य वस्तु कहां से आयी यह ज्ञात न हो तथा जो वस्तु अज्ञात हो उसे भक्षण न करना। एक बार पकाया हुआ अन्न पुनः गरम किया हो तो भोजन न करना तथा भोजन करते समय मुख से किसी प्रकार का शब्द तथा टेढ़ा वांका मुख न करना चाहिए। भोजन करते समय पड़ोसियों को भोजन करने के लिए बुलाकर प्रीति उत्पन्न करना। अपने इष्ट देव का नाम स्मरण करना तथा सम, चौड़े,विशेष ऊंचा व नीचा न हो ऐसे स्थिर आसन पर बैठकर अपनी मौसी, माता, बहिन अथवा स्त्री आदि द्वारा तैयार किया हुआ तथा पवित्र व भोजन किए हुए लोगों द्वारा आदरपूर्वक परोसा हुआ अन्न एकान्त में दाहिना स्वर बहता हो उस समय भोजन करना। भोजन करते वक्त मौन रहना। तथा शरीर सीधा रखना और प्रत्येक भक्ष्यवस्तु को सूंघना; कारण कि, उससे दृष्टिदोष टलता है। अधिक खारा, अधिक खट्टा, अधिक गरम अथवा अधिक ठंडा अन्न न खाना। अधिक शाक न खाना। अतिशय मीठी वस्तु न खाना तथा रुचिकर वस्तु भी अधिक न खाना। अतिशय उष्ण अन्न रस का नाश करता है, अतिशय खट्टा अन्न इन्द्रियों की शक्ति कम करता है, अतिशय खारा अन्न नेत्रों को विकार करता है; और अतिशय स्निग्ध अन्न ग्रहणी (आमाशय की छट्ठी थैली) को बिगाड़ता है। कटु और तीक्ष्ण आहार से कफ का, तूरे और मीठे आहार से पित्त का, स्निग्ध और उष्ण आहार से वायु का तथा उपवास से शेष रोगों का नाश करना चाहिए। जो पुरुष शाकभाजी अधिक न खाये, घृत के साथ अन्न खाये, दूध आदि स्निग्ध वस्तु का सेवन करे, अधिक जल न पीये,अजीर्ण पर भोजन न करे, मूत्रल (अतिशीत-बरफादि) तथा विदाही (अतिउष्णमीरचादि) वस्तु का सेवन न करे, चलते हुए भक्षण न करे, और खाया हुआ पच जाने पर अवसर से भोजन करे, उसे यदि कभी शरीर रोग होता है तो बहुत ही थोड़ा होता है। नीतिवान् पुरुष प्रथम मधुर, मध्य में तीक्ष्ण और अन्त में कटु ऐसा दुर्जन की मित्रता के सदृश भोजन चाहते हैं। शीघ्रता न करते प्रथम मधुर और स्निग्धरस भक्षण करना, मध्य में पतला, खट्टा और खारा रस भक्षण करना तथा अन्त में कटु और तीखारस भक्षण करना चाहिए। प्रथम प्रवाही, मध्य में कटु रस और अंत में पुनः प्रवाही भक्षण करना चाहिए, इससे बल और आरोग्य बढ़ता है। भोजन के प्रारंभ में जल पीने से अग्नि मंद होती है, मध्यभाग में जलपान रसायन के समान पुष्टि देता है, और अंत में पीने से विष के समान हानिकारक होता है। मनुष्य को भोजन करने के बाद सर्वरस से भरे हुए हाथ से जल का एक कुल्ला प्रतिदिन पीना। पशु की तरह मनमाना जल नहीं पीना चाहिए, झूठा बचा हुआ भी न पीना; तथा खोबे से भी न पीना। कारण कि, परिमित जल पीना ही हितकर है। भोजन कर लेने के बाद भीगे हुए हाथ से दोनों गालों को, बायें हाथ को अथवा नेत्रों को स्पर्श न करना; परंतु कल्याण के लिए दोनों घुटनों को स्पर्श करना चाहिए। भोजन के उपरांत कुछ समय तक शरीर का मर्दन, मलमूत्र का त्याग, बोझा उठाना, बैठे रहना, नहाना आदि न करना चाहिए। भोजन

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