Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 342
________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 331 से क्षमापनाकर पूछा कि, 'हे श्रेष्ठिन्! यह धन तेरे घर किस प्रकार गया?' श्रेष्ठी ने उत्तर दिया-'हे स्वामिन्! मैं कुछ भी नहीं जानता, परन्तु पर्व के दिन पुण्य की महिमा से मुझे लाभ ही होता है।' तब पर्व की महिमा सुनकर, जातिस्मरणज्ञान पाये हुए राजा ने भी यावज्जीव छःहो पर्व पालने का नियम लिया। उसी समय भंडारी ने आकर राजा को बधाई दी कि-'वर्षाकाल की जलवृष्टि से जैसे सरोवर भर जाते हैं, वैसे अपने समस्त भंडार इसी समय धन से परिपूर्ण हो गये।' यह सुन राजा को बड़ा आश्चर्य व हर्ष हुआ। इतने में चंचल कुंडल आदि आभूषणों से देदीप्यमान एक देवता प्रकट होकर कहने लगा कि, 'हे राजन्! तेरा पूर्वभवका मित्र जो श्रेष्ठि पुत्र था और अभी जो देवता का भव भोग रहा है, उसे तू पहिचानता है? मैंने ही पूर्वभव में तुझको वचन दिया था उससे तुझे प्रतिबोध करने के लिए तथा पर्वदिवस की आराधना करनेवाले लोगों में शिरोमणि इस श्रेष्ठी को सहायता करने के लिए यह कृत्य किया। इसलिए तू धर्मकृत्य में प्रमाद न कर। अब में उक्त तेली व कौटुम्बिक के जीव जो कि राजा हुए हैं, उनको. प्रतिबोध करने जाता हूं। यह कहकर देवता चला गया। पश्चात् उसने उन दोनों राजाओं को एक ही समय स्वप्न में पूर्वभव बताया। जिससे उनको भी जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। और वे भी श्रावकधर्म की व विशेषकर पर्वदिवसों की सम्यग् रीति से आराधना करने लगे। पश्चात उन तीनों राजाओं ने देवता के कहने से अपने-अपने देश में अमारिकी प्रवृत्ति, सातोंव्यसनोंकी निवृत्ति,जगह-जगह नये नये जिनमंदिर, पूजा, यात्रा,साधर्मिकवात्सल्य, पर्व के पूर्व दिन पटह की उद्घोषणा तथा सर्वपों में सब लोगों को धर्मकृत्य में लगाना आदि इस रीति से धर्मोन्नति की, जिससे एकछत्र साम्राज्य के समान जैनधर्म प्रवृत्त हो गया और उसके प्रभाव से तथा श्रेष्ठी के जीव देवता की सहायता से उन तीनों राजाओं के देशों में तीर्थंकर की विहारभूमि की तरह अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष,स्वचक्र-परचक्र, व्याधि, महामारी तथा दारिद्र आदि के उपद्रव स्वप्न में भी नहीं रहे। ऐसी दुःसाध्य वस्तु कौन सी है कि जो धर्म के प्रभाव से सुसाध्य न हो सके? इस प्रकार सुखमय और धर्ममय राज्यलक्ष्मी को चिरकाल भोगकर उन तीनों राजाओं ने साथ में दीक्षा लेकर महान् तपस्या से शीघ्र ही केवलज्ञान उपार्जन किया। श्रेष्ठी का जीव देवता, उनकी महिमा स्थान-स्थान में बहुत ही बढ़ाने लगा। पश्चात् प्रायः अपना ही दृष्टान्त कह, उपदेश करके पृथ्वी में सर्वपर्वरूपी सम्यग् धर्म का अतिशय विस्तार किया और बहुत से भव्यजीवों का उद्धार करके स्वयं मोक्ष में गये। श्रेष्ठी के जीव देवता ने भी अच्युतदेवलोक से च्यवकर महाराजा होकर पुनः पर्व की महिमा सुनने से जातिस्मरणज्ञान पाया। और वह भी दीक्षा लेकर मोक्ष में गया इत्यादि। इति श्रीरत्नशेखरसूरि विरचित श्राद्धविधिकौमुदी की हिन्दीभाषा का पर्वकृत्यप्रकाश नामक तृतीयः प्रकाशः सम्पूर्णः

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