Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 351
________________ 340 श्राद्धविधि प्रकरणम् कारण यह है कि 'परिहारः परिभोगः' ऐसा वचन है, जिससे असंयतपन से जो परिभोग करना ऐसा अर्थ होता है। ऐसा प्रवचनसारोद्धारवृत्ति में कहा है। इसी प्रकार प्रातिहारिक, पीठ, फलक, पाटिया इत्यादिक संयमोपकारि सर्व वस्तुएं श्रद्धापूर्वक साधुमुनिराज को देना। सूई आदि वस्तुएं भी संयम के उपकरण हैं, ऐसा श्रीकल्प में कहा है। यथा असणाई वत्थाई सूआई चउक्कगा तिन्नि। अर्थः अशनादिक, वस्त्रादिक और सूई आदि ये तीन चतुष्क मिलकर बारह; जैसे कि, १ अशन, २ पान, ३ खादिम, ४ स्वादिम ये अशनादिक चार,५ वस्त्र, ६ पात्र, ७ कम्बल, ८ पादपोंछनक ये वस्त्रादिक चार; तथा ९ सूई, १० 'अस्तरा, ११ नहणी और १२ कान कुचलने की सलाई ये सूइ आदिक ४; इस प्रकार तीन चतुष्क मिलकर बारह वस्तुएं संयम के उपकरण हैं। इसी प्रकार श्रावकश्राविकारूपी संघ का भी यथाशक्ति भक्ति से पहिरावणी आदि देकर सत्कार करे। देव, गुरु आदि के गुण गानेवाले याचकादिकों को भी यथोचित रीति से संतुष्ट करे। संघपूजा तीन प्रकार की है। एक उत्कृष्ट, दूसरी मध्यम और तीसरी जघन्य। जिनमतधारी सम्पूर्ण संघ को पहिरावणी दे तो उत्कृष्ट संघपूजा होती है। सर्वसंघ को केवल सूत्र आदि दे तो जघन्य संघपूजा होती है। शेष सर्व मध्यम संघपूजा है। जिसमें जिसकी अधिक धन खर्च करने की शक्ति न हो, उसने भी गुरु महाराज को सूत की मुंहपत्ति आदितथा दो तीन श्रावक श्राविकाओं को सुपारी आदिदेकर प्रतिवर्ष भक्तिपूर्वक संघपूजा करना। दरिद्री पुरुष इतना ही करे तो भी उसे बहुत लाभ है। कहा है किबहुत लक्ष्मी होने पर नियम पालन करना, शक्ति होतो क्षमा धारण करना, तरुणावस्था में व्रत ग्रहण करना, और दरिद्रीअवस्था में अल्प मात्र भी दान देना, इन चारों वस्तुओं से बहुत लाभ होता है। वस्तुपाल मंत्री आदि लोग तो प्रत्येक चातुर्मास में संघपूजा आदि करते थे और बहुत से धन का व्यय करते थे, ऐसा सुनते हैं। दिल्ली में जगसीश्रेष्ठी का पुत्र महणसिंह श्रीतपागच्छाधिपपूज्यश्री देवचन्द्रसूरिजीका भक्त था। उसने एक ही संघपूजा में जिनमतधारी सर्वसंघ को पहिरावणी आदि देकर चौरासी हजार टंक का व्यय किया। दूसरे ही दिन वहां पंडित देवमंगलगणि पधारे। पूर्व में महणसिंह के बुलाये हुए श्री गुरुमहाराज ने उन गणिजी को भेजे थे। उनके आगमन के समय महणसिंह ने संक्षेपमें संघपूजा की, उसमें छप्पन हजार टंक का व्यय किया। इत्यादिक कथाएँ सुनने में आती हैं। साधर्मिकवात्सल्य भी सर्वसाधर्मिक भाइयों का अथवा शक्ति के अनुसार कम से कम एक का करना चाहिए। साधर्मिकभाइयों का योग मिलना प्रायः दुर्लभ है। कहा १. समानधर्माणो हि प्रायेण दुष्प्रापाः।।

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