Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

View full book text
Previous | Next

Page 398
________________ 387 - श्राद्धविधि प्रकरणम् मारीत्यवमनिराकृति-सहस्रनामस्मृतिप्रभृतिकृत्यैः। श्रीमुनिसुन्दरगुरव-चिरन्तनाचार्यमहिमभृतः ।।८।। अर्थः एक श्रीमुनिसुन्दर गुरु महामारी, ईति आदि उपद्रव का दूर करना तथा सहस्रनाम स्मरण करना इत्यादि कृत्यों से चिरन्तन आचार्य की महिमा धारण करनेवाले हए ॥८॥ श्रीजयचन्द्रगणेन्द्रा-निस्तन्द्राः सङ्घगच्छकार्येषु। श्रीभुवनसुन्दरवरा, दूरविहारैर्गणोपकृतः ।।९।। अर्थः दूसरे शिष्य संघ तथा गच्छ के काम में आलस्य न करनेवाले श्रीजयचन्द्र आचार्य तथा तीसरे शिष्य दूर विहार करके संघ पर उपकार करनेवाले श्रीभुवनसुन्दरसूरि हुए ।।९।। विषममहाविद्यातद्विडम्बनाब्यौ तरीव वृत्तियः विदधे यज्ज्ञाननिधि, मदादिशिष्या उपाजीवन् ।।१०।। अर्थः जिन्होंने विषममहाविद्या के अज्ञान से विडम्बना रूपी समुद्र में पड़े हुए लोगों के उद्धारार्थ नाव समान महाविद्यावृत्ति की, और जिनके ज्ञाननिधि को मेरे समान शिष्य आश्रय कर रहे हैं ।।१०।। एकाङ्गा अप्येकादशाङ्गिनश्च जिनसुन्दराचार्याः। निर्गन्था ग्रन्थकृतः, श्रीमज्जिनकीर्तिगुरवश्च ।।११।। अर्थः चौथे एक अंग (शरीर) धारण करते हुए भी ग्यारहअंग (सूत्र) धारण करनेवाले श्रीजिनसुन्दरसूरि तथा पांचवें निग्रंथ (ग्रन्थ-परिग्रह रहित) होते हुए भी ग्रन्थ रचना करनेवाले श्रीजिनकीर्ति गुरु हुए ॥११॥ एषां श्रीसुगुरूणां, प्रसादतः षट्खतिथिमिते (१५०६) वर्षे। श्राद्धविधिसूत्रवृत्ति, व्यधित श्रीरत्नशेखरःसूरिः ॥१२॥ अर्थः श्रीरत्नशेखरसूरि ने उपरोक्त गुरुओं के प्रसाद से विक्रम संवत् १५०६ में श्राद्धविधि सूत्र की वृत्ति की रचना की ॥१२॥ अत्र गुणसत्रविज्ञावतंसजिनहंसगणिवरप्रमुखैः। शोधनलिखनादिविधौ, व्यधायि सान्निध्यमुद्युक्तः ।।१३।। अर्थः परमगुणवन्त और विद्वद्रत्न श्रीजिनहंसगणि आदि विद्वानों ने यह ग्रन्थ रचना, संशोधन करना लिखना आदि कार्य में परिश्रम से सहायता की ॥१३॥ विधिवैविध्याच्छ्रुतगतनैयत्यादर्शनाच्च यत्किञ्चित्। अत्रोत्सूत्रमसूत्र्यत, तन्मिथ्यादुष्कृतं मेऽस्तु ।।१४।। अर्थः विधि अनेक प्रकार की होने से तथा सिद्धान्त स्थितनिश्चय बात को नहीं देखने से इस ग्रन्थ में मैंने जो कुछ उत्सूत्र रचना की हो, वह मेरा दुष्कृत

Loading...

Page Navigation
1 ... 396 397 398 399 400