Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 376
________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 365 तो, परस्पर अवहेलना, कुटुम्ब में कलह, कलंक इत्यादिक होते हैं। जैसे कि पोतनपुरनगर श्रीमती नामक एक श्रावक कन्या ने सादर किसी अन्य धर्मावलंबी पुरुष के साथ विवाह किया था। वह धर्म में बहुत ही दृढ़ थी। परन्तु उसके पति परधर्मी होने से उस पर अनुराग नहीं रहा। एक समय पति ने घर के अंदर एक घड़े में सर्प रखकर श्रीमती को कहा कि, अमुक घड़े में से पुष्पमाला निकालकर ला । जब श्रीमती लेने गयी तो नवकार स्मरण के प्रभाव से सर्प की पुष्पमाला हो गयी। पश्चात् श्रीमती के पति आदि सब लोग श्रावक हो गये। दोनों के कुलशील आदि समान हो तो उत्कृष्ट सुख, धर्म तथा बड़प्पन आदि मिलता है। इस विषय में पेथड़ श्रेष्ठी तथा प्रथमिणी स्त्री का उदाहरण विद्यमान है। सामुद्रिकादिक शास्त्रों में कहे हुए शरीर के लक्षण तथा जन्मपत्रिका की जांच आदि करके वरकन्या की परीक्षा करनी चाहिए। कहा है कि, १ कुल, २ शील, ३ सगे सम्बन्धी, ४ विद्या, ५ धन, ६ शरीर और ७ वय ये सात गुण कन्यादान करनेवाले को वर में देखने चाहिए। इसके उपरान्त कन्या अपने भाग्य के आधार पर रहती है। जो मूर्ख, निर्धन, दूरदेशान्तर में रहनेवाला, शूरवीर, मोक्ष की इच्छा करनेवाला, और कन्या से तिगुनी से भी अधिक वय वाला हो, ऐसे वर को कन्या देनी नहीं चाहिए। आश्चर्यकारक अपार संपत्तिवाला, अधिक ठंडा, अथवा बहुत ही क्रोधी, हाथ, पैर अथवा किसी भी अंग से अपंग तथा रोगी ऐसे वर को कन्या नहीं देनी चाहिए। कुल तथा जाति से हीन, अपने माता-पिता से अलग रहनेवाला और जिसके पूर्व विवाहित स्त्री तथा पुत्रादि हो ऐसे वर को कन्या नहीं देनी चाहिए। अधिक वैर तथा अपवादवाले, नित्य जितना द्रव्य मिले उस सबको खर्च कर देनेवाले, प्रमाद से शून्यमनवाले ऐसे वर को कन्या नहीं देनी चाहिए। अपने गोत्र में उत्पन्न, जूआ, चोरी आदि व्यसनवाले तथा परदेशी को कन्या नहीं देनी चाहिए। L कुलवान् स्त्री वह होती है जो अपने पति आदि लोगों के साथ निष्कपट बर्ताव करनेवाली, सासु आदि पर भक्ति करनेवाली, स्वजन पर प्रीति रखनेवाली, बंधुवर्ग ऊपर स्नेहवाली और हमेशा प्रसन्न मुखवाली हो। जिस पुरुष के पुत्र आज्ञाकारी तथा पितृभक्त हों, स्त्री आज्ञाकारिणी हो और इच्छित सम्पत्ति हो; उस पुरुष को यह मृत्युलोक ही स्वर्ग के समान है। अग्नि तथा देव आदि के समक्ष हस्तमिलाप करना विवाह कहलाता है। यह विवाह लोक में आठ प्रकार का है -१ आभूषण पहनाकर कन्यादान करना वह ब्राह्मविवाह कहलाता है। २ धन खर्च करके कन्यादान करना वह प्राजापत्यविवाह कहलाता है । ३ गायबैल का जोड़ा देकर कन्यादान करना, वह आर्षविवाह कहलाता है। ४ यजमान ब्राह्मण को यज्ञ की दक्षिणा के रूप में कन्या दे, वह दैवविवाह कहलाता है। ये चारों प्रकार के विवाह धर्मानुकूल हैं। ५ माता, पिता अथवा बन्धुवर्ग इनको न मानते पारस्परिक प्रेम हो जाने से कन्या मन इच्छित वर को वर ले, वह गांधर्वविवाह

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