Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 394
________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 383 आरंभ ८ पेस ९ उद्दि-दुवज्जए १० समणभूए ११ अ ॥१॥ अर्थः १ दर्शनप्रतिमा का स्वरूप यह है कि उसमें राजाभियोगादि छ: आगार रहित, श्रद्धान आदि चार गुण सहित समकित को भय, लोभ, लज्जा आदि दोषों से अतिचार न लगाते हुए एक मास तक पालना, और त्रिकाल देवपूजा आदि करना। २ व्रतप्रतिमा, उसमें दो मास तक खंडना तथा विराधना बिना पांच अणुव्रत पालना तथा प्रथमप्रतिमा की क्रिया भी करना। ३ सामायिक प्रतिमा, उसमें तीन मास तक दोनों समय प्रमाद छोड़कर दो बार सामायिक करना तथा पूर्वोक्त प्रतिमा की क्रिया भी करना। ४ पौषधप्रतिमा उसमें पूवोक्त प्रतिमा के नियम सहित चार मास तक चार पर्वतिथि में अखंडित और परिपूर्ण पौषधकरना। ५ प्रतिमाप्रतिमा अर्थात् कायोत्सर्ग प्रतिमा, उसमें पूर्वोक्त प्रतिमा की क्रिया सहित पांच मास तक स्नान का त्यागकर, रात्रि में चौविहार पच्चक्खाण करके, दिन में ब्रह्मचर्य पालना तथा धोती की लांग छूटी रखकर चार पतिथिको घर में, घर के द्वार में अथवा बाजार में परीषह (असह्य) उपसर्ग से न डगमगते समग्र रात्रि तक काउस्सग्ग करना। आगे जिन प्रतिमाओं का वर्णन किया जाता है, उन सब में पूर्वोक्त प्रतिमा की क्रिया सम्मिलित कर लेनी चाहिए। ६ ब्रह्मचर्य प्रतिमा - उसमें छः मास पर्यंत निरतिचार ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना।७ सचित्तपरिहार प्रतिमा, उसमें सात मास तक सचित्त वस्तु का त्याग करना। ८ आरंभपरिहार प्रतिमा, उसमें आठ मास तक कुछ भी आरंभ स्वयं न करना। ९ प्रेषणपरिहार प्रतिमा, उसमें नवमास तक अपने नौकर आदि से भी आरंभ न करवाना। १० उद्दिष्टपरिहार प्रतिमा, उसमें दस मास पर्यंत मस्तक मुंडाना अथवा चोटी मात्र धारण करना,निधान में रखे हुए धन के सम्बन्ध में कोई स्वजन प्रश्न करे तो यदि ज्ञात हो तो बता देना और ज्ञात न हो तो इन्कार कर देना, शेष सर्वगृहकृत्यों का त्याग करना, तथा अपने निमित्त तैयार किया हुआ भोजन भी भक्षण न करना। . ११ श्रमणभूत प्रतिमा, उसमें ग्यारह मास पर्यंत घर आदि छोड़ना, लोच अथवा मुंडन कराना, ओघा, पात्रा आदि मुनिवेष धारण करना, अपने संबंधी गोकुल आदि में निवास करना, और प्रतिमावाहकाय श्रमणोपासकाय भिक्षां देहि' ऐसा कह साधु की तरह आचार पालना, परन्तु धर्मलाभ शब्द का उच्चारण नहीं करना। अट्ठारहवां द्वार-संलेखना : अन्त में याने आयुष्य का अन्त समीप आने पर निम्नांकित रीति के अनुसार संलेखना आदि विधि सहित आराधना करना। इसका भावार्थ यह है कि वह पुरुष अवश्य करने योग्य कार्यका भंग होने पर और मृत्युसमीप आने पर प्रथम संलेखनाकर -

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