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श्राद्धविधि प्रकरणम् पश्चात् चारित्र ग्रहण करे।' इत्यादि ग्रंथोक्त वचन है, इसलिए श्रावक आवश्यकीय कर्तव्यरूप पूजा प्रतिक्रमण आदि क्रिया करने की शक्ति न हो तो अथवा मृत्यु समीप आ पहुंचे तो द्रव्य से तथा भाव से दो प्रकार से संलेखना करे। उसमें क्रमशः आहारका त्याग करना वह द्रव्यसंलेखना और क्रोधादि कषाय का त्याग करना वह भाव संलेखना कहलाती है। कहा है कि शरीर संलेखनावाला न हो तो मरणसमय में सात धातु का एकदम प्रकोप होने से जीव को आर्तध्यान उत्पन्न होता है। मैं तेरे इस शरीर की प्रशंसा नहीं करता, क्या तेरा साधु का शरीर है? साधु की अंतिम संलेखना में साधु की अंगुली टूट जाय तो भी दुःख नहीं होता वैसे क्या तेरी अंगुली टूट गयी है? इस प्रकार की अंतिम विचारणा से तू भावसंलेखना कर, समीप आयी हुई मृत्यु स्वप्न, शकुन तथा देवता के वचन पर से निर्धारित कर। कहा है कि-दुःस्वप्न, अपनी स्वाभाविक प्रकृति में हुआ कोई भिन्न फेरफार, बुरे निमित्त, उलटे ग्रह, स्वर के संचार में विपरीतता, इन कारणों से पुरुष को अपनी मृत्यु समीप आयी जानना। इस प्रकार संलेखना करके सकल श्रावक मानो धर्म के उद्यापन के ही निमित्त से अन्तकाल के समय भी चारित्र ग्रहण करे। कहा है कि-जीव शुभ परिणाम से जो एक दिन का भी चारित्र ग्रहण करे तो यद्यपि वह मोक्ष को न करे, तथापि वैमानिक देव तो अवश्य होता
. नलराजा का भाई कुबेर का पुत्र नयी शादी होने पर भी ज्ञानी के मुख से अपना . आयुष्य पांच दिन का बाकी है यह सुनकर शीघ्र चारित्र लेकर सिद्ध हुआ। हरिवाहन राजा ज्ञानी के वचन से अपनी आयुष्य नव प्रहर शेष जानकर दीक्षा ले सर्वार्थसिद्धि विमान में पहुंचा। अंतसमय में श्रावक दीक्षा ले,तब प्रभावना आदिकेलिए शक्त्यनुसार धर्म में धन व्यय करे। जैसे कि, थराद के आभू संघवी ने अकस्मात् दीक्षा के अवसर पर (अंतसमय) सात क्षेत्रों में सात करोड़ धन व्यय किया। पश्चात् अंतसमय आने पर संलेखना करके शजय आदि शुभतीर्थ में जाकर और निर्दोष स्थंडिल (जीवजंतु रहित भूमि) में शास्त्रोक्त विधि के अनुसार चतुर्विध आहार का पच्चक्खाणकर आनंदादिक श्रावकों की तरह अनशन ग्रहण करे।कहा है कि तपस्या से और व्रत से मोक्ष होता है, दान से उत्तम भोग मिलता है और अनशनकर मृत्यु पाने से इन्द्रत्व प्राप्त होता है। लौकिकशास्त्र में भी कहा है कि हे अर्जुन! विधिपूर्वक जल में अंतसमय रहे तो सात हजार वर्ष तक, अग्नि में पड़े तो दस हजार वर्ष तक, झंपापात (ऊंचे स्थान से गिरना) करे तो सोलह हजार वर्ष तक, भीषण संग्राम में पड़े तो साठ हजार वर्ष तक, गाय छुड़ाने के हेतु देहत्याग करे तो अस्सी हजार वर्ष तक शुभ गति भोगता है, और अंतसमय अनशन करे तो अक्षय गति पाता है।
पश्चात सर्व अतिचार के परिहार के निमित्त चार शरणरूप आदि आराधना करे। दशद्वार रूप आराधना तो इस प्रकार है-१ अतिचार की आलोचना करना, २ व्रतादिक उच्चारण करना, ३ जीवों को खमाना, ४ अट्ठारहों पापस्थानकों का त्याग करना, ५