Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 385
________________ 374 श्राद्धविधि प्रकरणम् वीतभयपट्टण को गये। राजा केशी यद्यपि उदायन मुनिराज का अनुरागी था, तथापि उसके प्रधानवर्ग ने उसे समझाया कि, 'उदायन राज्य लेने के हेतु यहां आया है' प्रधानों की बात सत्य मानकर केशी ने उदायन मुनिराज को विषमिश्रित दही वहोराया। प्रभावती देवता ने विष का अपहरण करके फिर से दही लेने को मना किया। दही बंद हो जाने से महाव्याधि पुनः बढ़ गयी। देवता ने तीन बार दही सेवन करते विष का अपहरण किया, एक समय देवता प्रमाद में था, तब मुनिराज के आहार में विषमिश्रित दही आ गया, तत्पश्चात् एक मास का अनशनकर केवलज्ञान होने पर उदायनराजर्षि सिद्ध हुए। पश्चात् प्रभावती देवता ने क्रोध से वीतभयपट्टण पर धूल की वृष्टि की और उदायन राजा का शय्यातर एक कुम्हार था, उसे भिल्लपल्ली में ले जाकर उस पल्ली का नाम 'कुम्हारकृत पल्ली' रखा। राजपुत्र अभीचि, पिता ने योग्यता होते हुए भी राज्य नहीं दिया, जिससे दुःखी हुआ, और अपनी मौसी के पुत्र कोणिक राजा के पास जाकर सुख से रहने लगा। वहां सम्यक् प्रकार से श्रावक धर्म की आराधना करता था, तो भी, 'पिता ने राज्य न देकर मेरा अपमान किया' यह सोच पिता के साथ बांधे हुए वैर की आलोचना नहीं की। जिससे पन्द्रह दिन के अनशन से मृत्यु को प्राप्त हो एक पल्योपम आयुष्य वाला श्रेष्ठ भवनपति देवता हुआ। वहां से च्यवन पाकर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा। प्रभावती देवता ने धूलवृष्टि की थी उस समय की भूमि में गड़ी हुई कपिलकेवलि प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा, श्रीहेमचन्द्राचार्य गुरु के वचन से राजा कुमारपाल को ज्ञात हुई। उसने उक्त स्थान खुदवाया तो अन्दर से उक्त प्रतिमा और राजा उदायन का दिया हुआ ताम्रपट्ट भी निकला। यथाविधि पूजा करके कुमारपाल बड़े उत्सव के साथ उसे अणहिलपुर पट्टण को ले आया तथा नवीन बनवाये हुए स्फटिकमय जिनमंदिर में उसकी स्थापना की और राजा उदायन के ताम्रपट्टानुसार ग्राम, पुर आदि स्वीकार रखकर.बहुत काल तक उस प्रतिमा की पूजा की। जिससे उसकी सर्व प्रकार से वृद्धि हुई इत्यादि। . ऊपर कहे अनुसार देव को भाग देने से निरन्तर उत्तम पूजा आदि तथा जिनमंदिर की यथोचित्त व्यवस्था, रक्षण आदि भी ठीक युक्ति से होते हैं। कहा है कि जो पुरुष अपनी शक्ति के अनुसार जिनमंदिर करावे, वह पुरुष देवलोक में देवताओं से प्रशंसित होकर बहुत काल तक परम सुख पाता है। छठवां द्वार-जिन बिम्ब निर्माण : - रत्न की, सुवर्ण की, धातु की, चन्दनादिक काष्ठ की, हस्तिदन्त की, शिला की तथा मिट्टी आदि की जिनप्रतिमा यथाशक्ति करवाना चाहिए। उसका परिमाण जघन्य अंगूठे के बराबर और उत्कृष्ट पांचसो धनुष्य तक जानना। कहा है कि जो लोग उत्तम मृत्तिका का, निर्मल शिला का, हस्तिदंत का, चांदी का, सुवर्ण का, रत्न का, माणिक का अथवा चन्दन का सुन्दर जिनबिंब शक्त्यनुसार इस लोक में करवाते हैं, वे

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