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श्राद्धविधि प्रकरणम्
379 केवलिभाषित सिद्धान्त को स्वयं पढ़े, पदावे अथवा पढ़नेवाले को वस्त्र, भोजन, पुस्तक आदि देकर सहायता करे, वह पुरुष इस लोक में सर्वज्ञ होता है। जिनभाषित
आगम की केवलज्ञान से भी श्रेष्ठता दिखती है। कहा है कि सामान्यतः श्रुतोपयोग रखनेवाला श्रुतज्ञानी साधु जो कदाचित् अशुद्ध वस्तु बहोरकर लावे तो उस वस्तु को केवली भगवान् भी भक्षण करते हैं। कारण कि, ऐसा न करे तो श्रुतज्ञान अप्रमाणित होता है। सुनने में आता है कि, किसी समय दुष्षमकालवश बारह वर्ष तक दुर्भिक्ष रहा, जिससे तथा अन्य भी कारणों से सिद्धान्त उच्छिन्न प्रायः हुए देखकर भगवान् नागार्जुन, स्कंदिलाचार्य आदि लोगों ने उसे पुस्तकारूढ किया। इसलिए सिद्धान्त को समान देनेवाले मनुष्य को उसे पुस्तक में लिखवाना तथा रेशमी वस्त्रआदि वस्तु से उसकी पूजा करनी चाहिए। सुनते हैं कि, पेथड़ श्रेष्ठि ने सात करोड तथा वस्तुपाल मन्त्री ने अट्ठारह करोड़ द्रव्य खर्च करके तीन ज्ञान भंडार लिखवाये थे। थराद के संघवी आम ने तीन करोड़ टंक व्यय करके सर्व आगम की एक एक प्रति सुवर्णमय अक्षर से और अन्य सर्व ग्रन्थों की एक एक प्रति स्याही से लिखवायी थी। ग्यारहवां द्वार-पौषधशाला निर्माण : - पौषधशाला अर्थात् श्रावकआदि को पौषध लेने के लिए उपयोग में आने योग्य साधारण स्थान भी पूर्व में कही हुई घर बनाने की विधि के अनुसार बनवाना चाहिए। साधर्मियों के लिए करायी हुई उक्त पौषधशाला सुव्यवस्थावाली और निरवद्य योग्य स्थान होने से समय पर साधुओं को भी उपाश्रयरूप में देना चाहिए। कारण कि, ऐसा करने में बहुत ही पुण्य है। कहा है कि जो मनुष्य तपस्या तथा अन्य भी बहुत से नियम पालनेवाले साधु मुनिराजों को उपाश्रय देता है, उसने मानो वस्त्र, अन्न, पान, शयन, आसन आदि सर्व वस्तुएँ मुनिराज को दी ऐसा समझना चाहिए। वस्तुपाल मन्त्री ने नवसो चौरासी पौषधशालाएँ बनवायीं। सिद्धराज जयसिंह के मुख्यमन्त्री सांतनुने अपना नया महल वादिदेवसूरि को दिखाकर कहा कि, 'यह कैसा है?' तब शिष्य माणिक्य बोला कि, 'जो इसे पौषधशाला करो तो हम इसकी प्रशंसा करें।' मन्त्री ने कहा-'जो आज्ञा, आज से यह पौषधशाला हो गयी।' उस पौषधशाला की बाहर की परशाल में श्रावकों को धर्मध्यान कर लेने के अनन्तर मुख देखने के लिए एक पुरुष प्रमाण ऊंचे दो दर्पण दोनों ओर रखे थे। मूलगाथा - १६
आजम्मं सम्मत्तं",जहसत्ति वयाइ" दिक्खगह" अहवा।
आरंभचाउ५ बंभंग, पडिमाई" अंतिआराहणा" ॥१६॥ संक्षेपार्थ : १२ यावज्जीव समकित पालना, १३ यथाशक्ति व्रत पालना, १४ अथवा
दीक्षा लेना, १५ आरम्भ का त्याग करना, १६ ब्रह्मचर्य पालना, १७ श्रावक