Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

View full book text
Previous | Next

Page 382
________________ 371 श्राद्धविधि प्रकरणम् ने राजाको भोजन के लिए बुलाने को एक दासी भेजी। राजा ने उसी दासी के द्वारा संदेश भेजकर कौतुक देखने के लिए रानी को बुलवायी। रानी प्रभावती ने वहां आते ही कहा कि, 'इस पेटी में देवाधिदेव श्री अरिहंत है, दूसरा कोई नहीं। अभी कौतुक देखो।' यह कह रानी ने यक्षकदम से उस पेटी पर अभिषेक किया और एक पुष्पांजली देकर कहा कि, 'देवाधिदेव! मुझे दर्शन दो।' इतना कहते ही जैसे प्रातःकाल में कमलकलिका विकसित होती है वैसे पेटी अपने आप खुल गयी। अंदर से सुकोमल विकसित पुष्पों की माला युक्त प्रतिमा प्रकट हुई, और जैनधर्म की बहुत महिमा हुई। रानी उस प्रतिमा को अपने अंतःपुर में ले गयी, और अपने नये बनवाये हुए चैत्य में स्थापनकर नित्य त्रिकाल पूजा करने लगी। ____एक समय रानी के आग्रह से राजा वीणा बजा रहा था और रानी भगवान् के सन्मुख नृत्य करती थी। इतने में राजा को रानी का शरीर सिर विहीन नजर आया, जिससे वह घबरा गया, और वीणा बजाने की कंबिका उसके हाथ में से नीचे गिर पड़ी। नृत्य में रसभंग होने से रानी कुपित हुई, तब राजा ने यथार्थ बात कही। एक समय दासी का लाया हुआ वस्त्र श्वेत होते हुए भी प्रभावती ने रक्तवर्ण देखा, और क्रोध कर दासी पर दर्पण फेंक मारा, जिससे वह मर गयी। पश्चात् वही वस्त्र प्रभावती ने पुनः देखा तो श्वेत नजर आया, जिससे उसने निश्चय किया कि अब मेरा आयुष्य थोड़ा ही रह गया है, और दासी की हत्या से प्रथम स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत का भी भंग हो गया है, इससे वैराग्य पाकर दीक्षा लेने की आज्ञा के लिए राजा के पास गयी, राजा ने 'देवता का भव पाकर तू मुझे सम्यक् प्रकार से धर्म में प्रवृत्त करना' यह कहकर आज्ञा दे दी। तदनन्तर प्रभावती ने उस प्रतिमा की पूजा के निमित्त देवदत्ता नाम की कुब्जाको रखकर स्वयं बड़े समारोह से दीक्षा ग्रहण की, और अनशनकर सौधर्म देवलोक में देवता हुई, उस देवता ने बहुत ही प्रतिबोध किया, परन्तु राजा उदायन ने तापस की भक्ति नहीं छोड़ी। दृष्टिराग तोड़ना कितना कठिन है! अस्तु, पश्चात् देवता ने तापस के रूप से राजा को दिव्य अमृत फल दिया। उसका रस चखते ही लुब्ध हुए राजा को तापसरूपी देवता अपने रचे हुए आश्रम में ले गया। वहां वेषधारी तापसों ने बहुत ताड़ना की जिससे राजा भागा, और जैनसाधुओं के उपाश्रय में आया। साधुओं ने अभयदान दिया, जिससे राजा ने जैनधर्म स्वीकार किया। पश्चात् देवता अपनी ऋद्धि बताकर, राजा को जैनधर्म में दृढ़कर 'आपत्ति के समय मेरा स्मरण करना।' यह कहकर अदृश्य हो गया। इधर गान्धार नामक कोई श्रावक सर्वस्थानों में चैत्यवंदन करने निकला था। बहुत से उपवास करने से संतुष्ट हुई देवी ने उसे वैताढ्य पर्वत पर ले जाकर वहां की प्रतिमाओं को वंदन कराया, और मनवांछित-इच्छा पूर्ण करनेवाली एकसो आठ गोलियां दी। उसने एक गोली मुंह में डालकर चिन्तन किया कि, 'मुझे वीतभयपट्टण जाना है', गुटिका के प्रभाव से वह वहां आ गया। कुब्जा दासी ने उसे उस प्रतिमा का

Loading...

Page Navigation
1 ... 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400