Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 367
________________ 356 . श्राद्धविधि प्रकरणम् आदि से भी दुष्कर है। लक्ष्मणासाध्वी आदि की ऐसी बात सुनते हैं किपाप छुपाने का फल : ___इस चौबीसी से अतीतकाल की अस्सीवीं चौबीसी में एक बहुपुत्रवान राजा को सैकडों मानता से एक कन्या हुई। स्वयंवर मंडप में उसका विवाह हुआ, परन्तु दुर्दैव से चैवरी के अन्दर ही पति के मर जाने से विधवा हो गयी। पश्चात् वह सम्यक् प्रकार से शील पालनकर सती स्त्रियों में प्रतिष्ठित हुई और जैनधर्म में बहुत ही तत्पर हो गयी। एक समय उस चौबीसी के अंतिम अरिहंत ने उसे दीक्षा दी। पश्चात् वह लक्ष्मणा नाम से प्रसिद्ध हुई। एक समय चिड़ा चिड़िया का विषयसंभोग देखकर वह मन में विचार करने लगी कि, 'अरिहंत भगवंत ने चारित्रवन्तों को विषयभोग की अनुमति क्यों न दी? अथवा वे स्वयं वेद रहित होने से वेद का दुःख नहीं जानते?' इत्यादि मन में चिंतनकर के क्षणभर में वह सचेत हो पश्चात्ताप करने लगी। उसे लज्जा उत्पन्न हुई कि 'अब मैं आलोचना किस प्रकार करूंगी?' तथापि शल्य रखने से किसी भी प्रकार शुद्धि नहीं होती यह बात ध्यान में लेकर उसने अपने आपको धीरज दी, और वह वहां से निकली। इतने में अचानक पग में कांटा लगा। जिससे अपशकुन हुआ समझकर वह मन में झुंझलाई, और 'जो ऐसा बुरा चिंतन करता है, उसका क्या प्रायश्चित्त?' इस तरह अन्य किसी अपराधी के बहाने से पूछकर उसने आलोचना ली, परन्तु लज्जा के मारे और बड़प्पन का भंग होने के भय से अपना नाम प्रकट नहीं किया। उस दोष के प्रायश्चित्त रूप में उसने पचास वर्ष तक उग्र तपस्या की। कहा है कि विगई रहित होकर छ?, अट्ठम, दशम (चार उपवास) और दुवालस (पांच उपवास) यह तपस्या दस वर्ष; उपवास सहित दो वर्ष; भोजन से दो वर्ष; मासखमण तपस्या सोलह वर्ष और आंबिल तपस्या बीस वर्ष। इस तरह लक्ष्मणासाध्वी ने पचास वर्ष तक तपस्या की। यह तपस्या करते उसने प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाएं नहीं छोड़ी। तथा मन में किंचित् मात्र भी दीनता न लायी। इस प्रकार दुष्कर तपस्या की तो भी वह शुद्ध न हुई। अन्त में उसने आर्तध्यान में काल किया। दासी आदि असंख्य भवों में बहुत कठिन दुःख भोगकर अन्त में श्रीपद्मनाभतीर्थकर के तीर्थ में वह सिद्धि को प्राप्त होगी। कहा है कि शल्यवाला जीव चाहे दिव्य हजार वर्ष पर्यन्त अत्यन्त उग्र तपस्या करे, तो भी शल्य होने से उसकी उक्त तपस्या बिलकुल निष्फल है। जैसे अतिकुशल वैद्य भी अपना रोग दूसरे वैद्य को कहकर ही निरोग होता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुष के शल्य का उद्धार भी दूसरे ज्ञानी के द्वारा ही होता है। ७ आलोचना लेने से तीर्थंकरों की आज्ञा आराधित होती है। ८ निःशल्यपना प्रकट होता है। उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नीसवें अध्ययन में कहा है कि हे भगवन्त! जीव आलोचना लेने से क्या उत्पन्न करता है? उत्तर–सरलभाव को पाया हुआ जीव अनन्त संसारको बढ़ानेवाले मायाशल्य, नियाणशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य इन तीनों प्रकार के शल्यों से रहित निष्कपट हो

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