Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 355
________________ 344 श्राद्धविधि प्रकरणम् नवकार बोला, तब उसने उसे नौ सुवर्णमुद्राएं दी। तीन यात्रा : ___ इसी प्रकार प्रतिवर्ष जघन्य से एक यात्रा भी करना। यात्राएं तीन प्रकार की हैं। जैसे-१ अट्ठाई यात्रा, २ रथयात्रा और ३ तीर्थयात्रा। जिसमें १ अट्ठाईयात्रा का स्वरूप पहिले कहा गया है। उसमें सविस्तृत सर्व चैत्यपरिपाटी करना आदि जो अट्ठाईयात्रा है वह चैत्ययात्रा भी कहलाती है। २ रथयात्रा तो हेमचन्द्रसूरि विरचित परिशिष्टपर्व में कही है। जैसे—पूज्य श्रीसहस्ति आचार्य अवंतीनगरी में निवास करते थे, उस समय एक वर्ष संघ ने चैत्ययात्रा का उत्सव किया। भगवान् सुहस्ति आचार्य भी नित्य संघ के साथ चैत्ययात्रा में आकर मंडप को सुशोभित करते थे। तब संप्रति राजा अति लघुशिष्य की तरह हाथ जोड़कर उनके संमुख बैठता था। चैत्ययात्रा हो जाने के अनन्तर संघ ने रथयात्रा शुरू की। कारण कि, यात्रा का उत्सव रथयात्रा करने से सम्पूर्ण होता है। सुवर्ण की तथा माणिक्यरत्नों की कांति से दिशाओं को प्रकाशित करनेवाला सूर्य के रथ के समान रथ रथशाला में से निकला। विधि के ज्ञाता और धनवान् श्रावकों ने रथ में पधराई हुई जिनप्रतिमा का स्नात्रपूजादि किया। अरिहंत का स्नात्र किया, तब जन्मकल्याणक के समय जैसे मेरु के शिखर पर से, उसी तरह रथ में से स्नात्रजल नीचे पड़ने लगा। मानो भगवान् से कुछ विनय करते हों! ऐसे मुखकोश बांधे हुए श्रावकों ने सुगंधित चन्दनादि वस्तु से भगवान् को विलेपन किया। जब मालती, कमल आदि की पुष्पमालाओं से भगवान् की प्रतिमा पूजाई, तब वह शरत्काल के मेघों से घिरी हुई चन्द्रकला की तरह शोभने लगी। जलते हुए मलयगिरि के धूप से उत्पन्न हुई धूम्ररेखाओं से घिरी हुई भगवान की प्रतिमा ऐसी शोभने लगी मानो नीलवस्त्रों से पूजी गयी हो। श्रावकों ने दीपती दीपशिखाओं युक्त भगवान् की आरती की। वह दीपती औषधिवाले पर्वत के शिखर के समान शोभायमान थी। अरिहंत के परमभक्त उन श्रावकों ने भगवान् को वन्दना करके घोड़े की तरह आगे होकर स्वयं रथ खींचा। उस समय नगरवासी जैनों की श्राविकाएं मंगलगीत गाने लगी। अपार केशर का जल रथ में से नीचे गिरता था जिससे मार्ग में छिटकाव होने लगा। इस प्रकार प्रत्येक घर की पूजा ग्रहण करता हुआ रथ नित्य धीरे धीरे संप्रति राजा के द्वार पर आता था। राजा उसी समय रथ की पूजा के लिए तैयार होकर फणस फल के समान रोमांचित शरीर हो वहां आता था। और नवीन आनन्दरूप सरोवर में हंस की तरह क्रीड़ा करता हुआ रथ में बिराजमान प्रतिमा की अष्टप्रकारी पूजा करता था। महापद्मचक्री ने भी अपनी माता का मनोरथ पूर्ण करने हेतु बड़ी धूमधाम से रथयात्रा की थी। कुमारपाल की रथयात्रा : कुमारपाल की की हुई रथयात्रा इस प्रकार कही गयी है-चैत्रमास की अष्टमी के दिन चौथे प्रहर में मानो चलते हुए मेरु पर्वत के समान व सुवर्णमय विशाल दंड के

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