Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 357
________________ 346 श्राद्धविधि प्रकरणम् उसे भाता तथा जिसको वाहन न हो उसे वाहन देना। निराधार मनुष्यों को द्रव्य तथा मृदु वचन का आधार देना। 'उचित सहायता दूंगा'। ऐसी उद्घोषणाकर उत्साहहीन यात्रियों को भी सार्थवाह की तरह हिम्मत देना। आडंबर से बड़े और भीतरी भाग में बहुत समावेशवाली कोठियां, शरावले, कनाते, तंबू, बड़ी कढ़ाइयां तथा दूसरे भी पानी के बडे-बडे बरतन कराना,गाड़े, परदेवाले रथ,पालखी, बैल, ऊंट,घोड़े आदि वाहन सजाना। श्रीसंघ की रक्षा के हेतु बहुत से शूरवीर सुभटों को साथ में लेना; और कवच,शिरस्त्राण आदि उपकरण देकर उनका सत्कार करना। गीत, नृत्य, वाजिंत्रआदि सामग्री तैयार कराना। पश्चात् शुभ शकुन, मुहूर्त आदि देखकर उत्साह पूर्वक गमन करना।' . मार्ग में यात्रियों के सर्व समुदाय को एकत्रित करना। श्रेष्ठ पक्वान्न जिमाकर उनको तांबूलादि देना। उनको वस्त्र आभूषण आदि पहनाना। श्रेष्ठ, प्रतिष्ठित, धर्मिष्ठ, पूज्य और महान् भाग्यशाली पुरुषों से संघवीपन का तिलक कराना। संघपूजादि महोत्सव करना। योग्यतानुसार दूसरों के पाससे भी संघवीपन आदि के तिलक करने का उत्सव कराना। संघ की जोखिम सिरपर लेनेवाले, आगे चलनेवाले, पीछे रहकर रक्षण करनेवाले तथा प्रमुखता से संघ का काम करनेवाले आदि लोगों को योग्य स्थान पर रखना। श्रीसंघ के चलने के तथा मुकाम करने के जो ठहराव हुए हों, वे सर्वत्र प्रसिद्ध करना। मार्ग में सब साधर्मिको की अच्छी तरह भक्ति करना। किसीकी गाड़ी का पहिया टूट जावे अथवा अन्य कोई तकलीफ हो तो स्वयं सर्वशक्ति से उनको मदद करना। प्रत्येक ग्राम तथा नगर में जिनमंदिर में स्नात्र, ध्वजा चढ़ाना, चैत्यपरिपाटी आदि महोत्सव करना। जीर्णोद्धार आदि का भी विचार करना। तीर्थ का दर्शन होने पर सुवर्ण, रत्न, मोती आदि वस्तुओं द्वारा वधाई करना। लापशी, लड्डू आदि वस्तुएं मुनिराज को बहोराना। साधर्मिकवात्सल्य करना, उचित रीति से दान आदि देना तथा महान् प्रवेशोत्सव करना। तीर्थ में पहुंच जाने पर प्रथम हर्ष से पूजा, वंदन आदि आदर से करना, अष्टप्रकारी पूजा करना तथा विधिपूर्वक स्नात्र करना। माल पहनना आदि करना। घी की धारावाडी देना, पहिरावणी रखना। जिनेश्वर भगवान की नवांग पूजा करना तथा फूलघर, केलीघर आदि महापूजा, रेशमीवस्त्रमय ध्वजा का दान, सदावर्त, रात्रिजागरण, गीत, नृत्यादि नाना तरह के उत्सव, तीर्थप्राप्ति निमित्त उपवास, छट्ठ आदि तपस्या करना। करोड़, लक्ष चांवल आदि विविध वस्तुएँ विविध उजमणे में रखना। तरह-तरह के चौबीस, बावन, बहत्तर, अथवा एकसौ आठ फल अथवा अन्य वस्तुएँ तथा सर्व भक्ष्य और भोज्य वस्तु से भरी हुई थाली भगवान् के सन्मुख रखना। वैसे ही रेशमी आदि वस्त्रों के चंदरुवे, पहिरावणी, अंगलूहणे, दीपक के लिए तैल, १. सूत्र के रचनाकाल में परि पालित संघ किस प्रकार निकलते थे उसका वर्णन इसमें मिलता है।

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