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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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है।' साथ ही कुतीर्थियों की हीलना होती है, कारण कि, उनमें ऐसे महासत्त्वधारी महापुरुष नहीं हैं। इसी प्रकार प्रतिमा पूर्ण करनेवाले साधु का सत्कार करना यह आचार है। इसी प्रकार तीर्थ की वृद्धि होती है, अर्थात् प्रवचन का अतिशय देखकर बहुत से भव्य प्राणी संसार पर वैराग्य प्राप्तकर दीक्षा लेते हैं, ऐसा व्यवहारभाष्य की वृत्ति में कहा है, इसी तरह शक्ति के अनुसार श्रीसंघ की प्रभावना करना, अर्थात् बहुमान से श्रीसंघ को आमंत्रण करना, तिलक करना, चंदन, जवादि, कपूर, कस्तूरी आदि सुगंधित वस्तु का लेप करना, सुगंधित फूल अर्पण करना, नारियल आदि विविध फल देना तथा तांबूल अर्पण करना, इत्यादि प्रभावना करने से तीर्थंकरपना आदि शुभफल मिलता है, कहा है कि — अपूर्वज्ञान ग्रहण, श्रुत की भक्ति और प्रवचन की प्रभावना इन तीनों कारणों से जीव तीर्थंकरपना पाता है। भावना शब्द से प्रभावना शब्द में 'प्र' यह अक्षर अधिक है, सो युक्त ही है। कारण कि, भावना तो उसके कर्त्ता को ही मोक्ष देती है और प्रभावना तो उसके कर्त्ता तथा दूसरों को भी मोक्ष देती है। प्रायश्चित्त :
इसी तरह गुरु का योग हो तो प्रतिवर्ष जघन्य से एकबार तो गुरु के पास अवश्य ही आलोचना लेनी चाहिए। कहा है कि - प्रतिवर्ष गुरु के पास आलोचना लेना, कारण कि – अपनी आत्मा की शुद्धि करने से वह दर्पण की तरह निर्मल हो जाती है। आगम में (श्रीआवश्यकनियुक्ति में) कहा है कि, चौमासी तथा संवत्सरी में आलोचना तथा नियम ग्रहण करना। वैसे ही पूर्व ग्रहण किये हुए अभिग्रह कहकर नवीन अभिग्रह लेना । श्राद्धजीतकल्प आदि ग्रन्थों में जो आलोचना विधि कही है, वह इस प्रकार हैपक्खिअचाउम्मासे, वरिसे उक्कोसओ अ बारसहिं ।
नियमा आलोइज्जा, गीआइगुणस्स भणिअं च ॥१॥
अर्थः पक्खी, चौमासी अथवा संवत्सरी के दिन जो न बन सके तो अधिक से अधिक बारह वर्ष में तो गीतार्थं गुरु के पास आलोचना अवश्य ही लेनी चाहिए। कहा है कि
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सल्लुद्धरणनिमित्तं खित्तंमि सत्त जोअणसयाई।
काले बारस वरिसा, गीअत्थगवेसणं कुज्जा ||२||
"
अर्थ : आलोचना लेने के निमित्त क्षेत्र से सातसो योजन क्षेत्र के प्रमाण में तथा काल से बारह वर्ष तक गीतार्थ गुरु की गवेषणा करना। आलोचना देनेवाले आचार्य के लक्षण ये हैं
गीअत्थो कडजोगी, चारित्ती तहय गाहणाकुसलो ।
खेअन्नो अविसाई, भणिओ आलोअणायरिओ || ३ ||