Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 341
________________ 330 श्राद्धविधि प्रकरणम् सरीखी धाराबंध वृष्टि होने लगी जिससे उसने सुखपूर्वक अपने नियम का पालन किया। इस प्रकार पर्व का नियम अखंडित पालने से वे तीनों व्यक्ति क्रमशः मृत्यु को प्राप्त होकर छठे लांतकदेवलोक में चौदह सागरोपम आयुष्यवाले देवता हुए। धनेश्वर श्रेष्ठी समाधि से मृत्यु पाकर बारहवें अच्युतदेवलोक में गया। उन चारों देवताओं की बड़ी मित्रता हो गयी, श्रेष्ठी का जीव जो देवता हुआ था, उसके पास अन्य तीनों देवताओं ने अपने च्यवन के अवसर पर स्वीकार कराया था कि-'तूने पूर्वभव की तरह आगन्तुक भव में भी हमको प्रतिबोध करना।' पश्चात् वे तीनों पृथक्-पृथक् राजकुलों में अवतरे। अनुक्रम से तरुणावस्था को प्राप्त हो बड़े बड़े देशों के अधिपति हो धीर, वीर और हीर इन नामों से जगत् में प्रसिद्ध हुए। धीरराजा के नगर में एक श्रेष्ठी को सदैव पर्व के दिन परिपूर्ण लाभ हुआ करता था, परन्तु कभी-कभी पर्वतिथि में हानि भी बहुत होती थी। उसने एक समय ज्ञानी को यह बात पूछी। ज्ञानी ने कहा'तूने पूर्वभव में दरिद्रावस्था में स्वीकार किये हुए नियमों को दृढतापूर्वक यथाशक्ति पर्व के दिन सम्यक्प्रकार से पालन किये। परन्तु एक समय धर्मसामग्री का योग होते भी तू धर्मानुष्ठान करने में प्रमाद आदि दोष से प्रमादी हुआ। उसीसे इस भव में तुझे इस प्रकार लाभ हानि होती है। कहा है कि-'धर्म में प्रमाद करनेवाला मनुष्य जो कुछ अपना नुकसान कर लेता है, वह चोर के लूटने से, अग्नि के जलाने से अथवा जूआ में हार जाने से भी नहीं होता' ज्ञानी का यह वचन सुन वह श्रेष्ठी सकुटुम्ब नित्य धर्मकृत्यों में सावधान हो गया, और अपनी सर्वशक्ति से सर्वपर्वो की आराधना करने लगा, व अत्यन्त ही अल्प आरंभ करके तथा पूर्णरूप से व्यवहारशुद्धि रखकर व्यापारादि बीजप्रमुख पर्व के ही दिन करता था',अन्य समय नहीं। जिससे सर्व ग्राहकों को विश्वास हो गया। सब उसीके साथ व्यवहार करने लगे। थोड़े ही समय में वह करोडों स्वर्णमुद्राओं का अधिपति हो गया। कौआ, कायस्थ और कूकड़ा (मुर्गा) ये तीनों अपने कुल का पोषण करते हैं, और वणिक्, श्वान, गज तथा ब्राह्मण ये चारों जने अपने कुल का नाश करते हैं, ऐसी कहावत है। तदनुसार दूसरे वणिक् लोगों ने डाह (अदेखाई) से राजा के पास चुगली खायी कि, 'इसको करोडों स्वर्णमुद्राओं का निधान मिला है जिससे राजाने श्रेष्ठीको धन की बात पूछी। श्रेष्ठी ने कहा-'मैंने स्थूलमृषावाद, स्थूलअदत्तादान आदि का गुरु के पास नियम लिया है।' पश्चात् अन्य वणिकों के कहने से राजा ने 'यह धर्मठग है' ऐसा निर्धारितकर उसका सर्वस्व जप्त करके उसे तथा उसके परिवार को अपने महल में रखे। श्रेष्ठी ने मन में विचार किया कि–'आज पंचमी पर्व है, अतएव किसी भी प्रकार से आज मुझे अवश्य लाभ होना चाहिए, प्रातःकाल राजा का समस्त भंडार खाली हुआ और श्रेष्ठी का घर स्वर्णमोहर तथा मणिरत्नों से परिपूर्ण भरा हुआ देखकर बड़ा आश्चर्य और खेद हुआ। तब उसने श्रेष्ठी १. पर्वतिथियों में ही व्यापारादि करने का कारण यह है कि पाप का भय इन दिनों में विशेष रहने ' से व्यापार में अधिक आरंभ समारंभ न हो। अन्य तिथियों में वह व्यापार नहीं करता था। -

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