Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 344
________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 333 फल की ऋतु न होने पर वे फल दुर्लभ हैं, इसलिए उस पुरुष को उस स्थान में, उस समय उसी वस्तु का नियम ग्रहण करना। इस प्रकार अविद्यमान वस्तु का नियम करने से भी विरति आदि महान् फल होता है। . अप्राप्त वस्तु के त्याग का फल : सुनते हैं कि राजगृही नगरी में एक भिक्षुक ने दीक्षा ली, यह देख लोग 'इसने बहुत सा धन छोड़कर दीक्षा ली है!' इस प्रकार उसकी हंसी करने लगे। जिससे सुधर्मस्वामी गुरु महाराज ने विहार करने की बात की। तब अभयकुमार ने बाजार में तीन करोड़ स्वर्णमुद्राओं के तीन भारी ढेर लगाकर, सब लोगों को बुलाया और कहा कि, 'जो पुरुष कुए आदि का जल, अग्नि और स्त्री का स्पर्श, ये तीनों यावज्जीव छोड़ दे, वह यह धन ले सकता है।' लोगों ने विचार करके कहा कि-'तीन करोड़ धन छोड़ा जा सकता है, परन्तु उक्त जल आदि तीन वस्तुएं नहीं छोड़ी जा सकती।' पश्चात् मन्त्री ने कहा कि, 'अरे मूर्यो! तो तुम इन द्रमकमुनि की हंसी क्यों करते हो? इन्होंने तो जलादि तीन वस्तुओं का त्याग करने से तीन करोड़ से भी अधिक त्याग किया है।' इससे प्रतिबोध पाकर लोगों ने द्रमकमुनि को खमाये। यह अप्राप्त वस्तु को त्याग करने का दृष्टान्त है। इसलिए अप्राप्य वस्तु का भी नियम ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि ऐसा न करने से उन वस्तुओं को ग्रहण करने में पशु की तरह अविरतिपन रहता है, और वह नियम ग्रहण करने से दूर होता है। भर्तृहरि ने कहा है कि मैंने क्षमा धारण नहीं की; घर के उचित सुख का (विषयसुख का) संतोष से त्याग नहीं किया, असह्य शीत, उष्णता और पवन की पीड़ा सही, परंतु तपस्या नहीं की; रातदिन मन में धन का चिन्तन किया, परंतु प्राणायाम (ध्यान) करके मुक्ति पद का चिंतन नहीं किया,सारांश यह कि, हमने ऐसा किया जैसा कि मुनिओं के द्वारा किया होने पर भी उस फल से वे वंचित रहे। वैसे मैं भी फल से वंचित रहा। दिनरात में दिन को एक बार भोजन करे, तो भी पच्चक्खाण किये बिना एकाशन का फल नहीं मिलता। लोक में भी ऐसी ही रीति है कि, कोई मनुष्य किसी का बहुतसा द्रव्य बहुत काल तक वापरे, तो भी कहे बिना उक्त द्रव्य का स्वल्प भी व्याज नहीं मिलता। अप्राप्त वस्तु का नियम ग्रहण किया हो तो, कदाचित् किसी प्रकार उस वस्तु का योग आ जाय तो भी नियम लेनेवाला मनुष्य उसे नहीं ले सकता, और नियम नहीं लिया हो तो ले सकता है। इस प्रकार अप्राप्यवस्तुका नियम ग्रहण करने में भी प्रत्यक्ष फल दिखता है। जैसे पल्लीपति वंकचुल को गुरु महाराज ने यह नियम दिया था कि 'अज्ञात फल भक्षण न करना।' जिससे अत्यंत क्षुधातुर होने पर भी तथा लोगों ने बहुत आग्रह किया तो भी वन में लगे हुए किंपाकफल अज्ञात होने से उसने भक्षण नहीं किये। उसके साथियों ने खाये, और वे मर गये। प्रत्येक चातुर्मास में नियम लेने का कहा, उसमें चातुर्मास यह उपलक्षण

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