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श्राद्धविधि प्रकरणम् उपार्जन किया। पीछे से उसे क्षायिक सम्यक्त्व हुआ, तो भी वह आयुष्य नहीं टला। अन्यदर्शन में भी पर्वतिथि को अभ्यंगस्नान (तैल लगाकर न्हाना), मैथुनआदि करना मना किया है। विष्णुपुराण में कहा है कि हे राजेन्द्र! चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा और सूर्य की संक्रान्ति इतने पर्व कहलाते हैं। जो पुरुष इन पर्वो में अभ्यंग करे, रतिक्रीड़ा करे, और मांस खाये तो वह मनुष्य मरकर 'विण्मूत्रभोजन' नामक नरक में जाता है। मनुस्मृति में भी कहा है कि'-ऋतु में ही रतिक्रीड़ा करनेवाला और अमावस्या, अष्टमी, पूर्णिमा और चतुर्दशी इन तिथियों में रतिक्रीड़ा न करनेवाला ब्राह्मण नित्य ब्रह्मचारी कहलाता है। इसलिए पर्व के अवसर पर अपनी पूर्णशक्ति से धर्माचरण के हेतु यत्न करना चाहिए। समय पर थोड़ासा भी पानभोजन करने से जैसे विशेष गुण होता है, वैसे ही अवसर पर थोड़ा ही धर्मानुष्ठान करने से भी बहुत फल प्राप्त होता है। वैद्यकशास्त्रमें कहा है कि शरद ऋतु में जो कुछजल पिया हो, पौष मास में तथा माह मास में जो कुछ भक्षण किया हो और ज्येष्ठ तथा आषाढ मास में जे कुछ निद्रा ली हो उसी पर मनुष्य जीवित रहते हैं। वर्षा ऋतु (सावण, भाद्रवा) में लवण, शरद ऋतु (आसोज-कार्तिक) में जल, हेमन्त (मार्गशीर्ष, पौष) ऋतु में गाय का दूध, शिशिर (माह, फाल्गुण) ऋतु में आमले का रस, वसन्त (चैत्र,वैसाख) ऋतु में घी और ग्रीष्म (ज्येष्ट, आषाढ) ऋतु में गुड़ अमृत के समान है। पर्व की महिमा ऐसी है कि, जिससे प्रायः अधर्मी को धर्म करने की, निर्दय को दया करने की, अविरति लोगों को विरति अंगीकार करने की, कृपण लोगों को धन खर्च करने की, कुशील पुरुषों को शील पालने की और कभी कभी तपस्या न करनेवाले को भी तपस्या करने की बद्धि हो जाती है यह बात वर्तमान में सर्वदर्शनों में पायी जाती है। कहा है कि जिन पर्वो के प्रभाव से निर्दय और अधर्मी पुरुषों को भी धर्म करने की बुद्धि होती है, ऐसे संवत्सरी
और चौमासी पर्वो की जिन्होंने यथाविधि आराधना की उनकी जय हो। इसलिए पर्व में पौषध आदि धर्मानुष्ठान अवश्य करना। पौषध :
पौषधके चार प्रकार आदि विषयों का वर्णन अर्थदीपिका (मूलग्रन्थकारविरचित) में किया गया है।
पौषध तीन प्रकार के हैं–१ अहोरात्रिपौषध, २ दिवसपौषध और ३ रात्रिपौषध.
अहोरात्रिपौषध की विधि इस प्रकार है-श्रावक को जिस दिन पौषध लेना हो, उस दिन सर्व गृहव्यापार का त्याग करना, और पौषध के सर्व उपकरण ले पौषधशाला में अथवा साधु के पास जाना। पश्चात् अंग का पडिलेहण करके बड़ीनीति तथा लघुनीति की भूमि पडिलेहण करना। तत्पश्चात् गुरु के पास अथवा नवकार गिनकर स्थापनाचार्य की स्थापनाकर इरियावही प्रतिक्रमण करे। 'पश्चात एक खमासमण से १. यह उनकी मान्यता कुछ अंश में धर्म को पुष्ट करने के लिए दर्शायी है। २. सौधर्मबृहत्तपागच्छ में यहाँ द्वादशावत विधि से गुरुवंदन करना आवश्यक है।