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श्राद्धविधि प्रकरणम्
. 327 संकोइअ संडासं, उव्वदृते अकायपडिलेहा। दव्वाई उवओगं, ऊसासनिरंभणाऽऽलोए ।।३।। जइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइ रयणीए।
आहारमुवहि देहं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ॥४॥ तत्पश्चात् 'चत्तारि मंगलं' इत्यादि भावना का ध्यान करके नवकार का स्मरण करता हुआ चरवला आदि से शरीर को संथारे पर प्रमार्जन करके बायीं करवट से भुजा सिरहाने लेकर सोवे। जो शरीर चिंता को जाना पड़े तो संथारा दूसरे को लगता हुआ रखकर 'आवस्सई' कहकर प्रथम पडिलेहणकर कायचिन्ता करे। पश्चात् इरियावहीकर गमनागमन की आलोचनाकर जघन्य से भी तीन गाथाओं का स्वाध्यायकर नवकार का स्मरण करता हुआ पूर्ववत् सोते रहे। रात्रि के पिछले प्रहर में जागृत हो, तब इरियावही प्रतिक्रमण करके कुसुमिणदुसुमिण का काउस्सग्ग करे। पश्चात् चैत्यवन्दन करके आचार्य आदि को वन्दनाकर प्रतिक्रमण का समय हो तब तक स्वाध्याय करे। तत्पश्चात् प्रतिक्रमण से लेकर पूर्ववत् मंडली में स्वाध्याय करने तक क्रिया करे। जो पौषध पारने की इच्छा हो तो एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! मुंहपत्ति पडिलेहूँ ऐसा कहे। गुरु के 'पडिलेहेह' कहने पर मुंहपत्ति की पडिलेहणाकर एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन! पोसहं पारूं?' कहे पीछे जब गुरु कहे 'पुणोवि कायव्वो' तब यथाशक्ति ऐसा कहकर खमासमण देकर कहना कि'पोसहं पारिअं फिर गुरु० 'आयारो न मुत्तव्वो' यह आदेश कहने पर तहत्ति कहकर खड़े रह नवकार की गणनाकर घुटनों पर बैठ तथा भूमि को मस्तक लगाकर ये गाथाएं कहना
सागरचन्दो कामो, चंदवडिसो सुदंसणो धन्नो। जेसिं पोसहपडिमा, अखंडिआ जीविअंतेऽवि ।।१।। धन्ना सलाहणिज्जा, सुलसा आणंद कामदेवा ।
जास पसंसइ भयवं, दढव्वयत्तं महावीरो ।।२।। पश्चात् यह कहे कि 'पौषध विधि से लिया, विधि से पारा, विधि से जो कुछ अविधि, खंडना तथा विराधना मन, वचन, काया से हो गयी हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।' सामायिक की विधि भी इसी प्रकार जानना। उसमें इतना ही विशेष है कि, 'सागरचन्दो' के बदले में ये गाथाएं कहना'
सामाइअवयजुत्तो, जाव मणे होइ निअमसंजुत्तो।।
छिन्नइ असुहं कम्म, सामाइय जत्तिआ वारा ॥१॥ १. इस सूत्र के रचनाकाल के समय में प्रातः पौषध पारने की क्रिया में इरियावही प्रतिक्रमण करने
की प्रथा नहीं थी। २. सामायिक पारने की विधि में भी 'सामाइयम्मिउ कए' गाथा नहीं है। और दूसरी दो गाथाए
वर्तमान में नहीं हैं।