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श्राद्धविधि प्रकरणम्
217 मा संस्थाः क्षीयते वित्तं, दीयमानं कदाचन। .
कूपारामगवादीनां, ददतामेव संपदः ।।१।। देने से धन का नाश होता है ऐसा आप किसी काल में भी मत समझना। देखो, कुआ, बगीचा, गाय आदि ज्यों-ज्यों देते जाते हैं त्यों-त्यों उनकी संपदा वृद्धि को प्राप्त होती है। इस विषय पर एक उदाहरण है किविद्यापति :
विद्यापति नामक एक श्रेष्ठी बहुत धनवान था। लक्ष्मी ने स्वप्न में आकर उसको कहा कि, 'मैं आज से दशवें दिन तेरे घर में से निकल जाऊंगी।' पश्चात् विद्यापति ने अपनी स्त्री के कहने से उसी दिन सर्वधन धर्म के सात क्षेत्रों में व्यय कर दिया। और गुरु से परिग्रह का प्रमाण स्वीकारकर सुखपूर्वक रात्रि में सो गया। प्रातःकाल होते ही देखा कि पुनः पूर्व की तरह धन परिपूर्ण भरा है। तब उसने पुनः सब द्रव्य धर्मकृत्य में व्यय कर दिया। इसी प्रकार नौ दिन व्यतीत हुए। दशवें दिन फिर लक्ष्मी ने स्वप्न में आकर कहा कि, 'तेरे पुण्य से मैं तेरे घर में ही स्थिर रहती हूं।' लक्ष्मी का यह वचन सुनकर विद्यापति श्रेष्ठी परिग्रह परिमाणव्रत का खंडन होने के भय से नगर को छोड़कर बाहर चला गया। उधर कोई राजा मर गया था। उसके संतान न होने के कारण, उसकी गादी पर किसी योग्य पुरुष को बैठाने के निमित्त मंत्री आदि लोगों ने पट्टहाथी की सूंड से अभिषेक कलश दे रखा था। उस हाथी ने आकर इस (विद्यापति श्रेष्ठी) पर अभिषेक किया, तदनंतर आकाशवाणी के कथनानुसार विद्यापति ने राजा के तौर पर जिनप्रतिमा की स्थापना करके राज्य संचालन किया, तथा क्रमशः वह पांचवें भव में मोक्ष को प्राप्त हुआ। धनार्जन न्यायमार्ग से ही : .
न्यायपूर्वक धन उपार्जन करनेवाले मनुष्य पर कोई भी शक नहीं रखता, बल्कि हर स्थान में उसकी प्रशंसा होती है। प्रायः उसकी किसी प्रकार की हानि भी नहीं होती, और उसकी सुखसमाधि आदि दिन प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्ति होती है।
इसलिए उपरोक्त रीति अनुसार धनोपार्जन करना इसलोक तथा परलोक में लाभकारी है। कहा है कि
सर्वत्र शुचयो धीराः, स्वकर्मबलगर्विताः।
कुकर्मनिहतात्मानः, पापाः सर्वत्र शङ्किताः ।।१।। पवित्र पुरुष अपने शुद्धाचरण के अभिमान के बल से सब जगह धैर्य से रहते हैं। परन्तु पापी पुरुष अपने कुकर्म से वेधित होने के कारण सब जगह मन में शंकायुक्त रहते हैं। यथाशुद्धाचरण का फल :
देव और यश नामक दो श्रेष्ठी प्रीति से साथ-साथ फिरा करते थे। एक दिन
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